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बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य एवं अष्टांगिक मार्ग
चार आर्य सत्य-
- दुः ख – संसार में दुः ख है।
- समुदाय – दुः ख का कारण है।
- निरोध – दुः ख निवारण संभव है।
- मार्ग – दुः ख निवारण हेतु अष्टांगिक मार्ग का पालन करना ।
प्राणी जन्म भर विभिन्न दु:खों की श्रृंखला में पड़ा रहता है, यह दु:ख आर्यसत्य है। संसार के विषयों के प्रति जो तृष्णा है वही समुदाय आर्यसत्य है। जो प्राणी तृष्णा के साथ मरता है, वह उसकी प्रेरणा से फिर भी जन्म ग्रहण करता है।
इसलिए तृष्णा के समुदय को आर्यसत्य कहते हैं। तृष्णा के न रहने से न तो संसार की वस्तुओं के कारण कोई दु:ख होता है और न मरणोंपरांत उसका पुनर्जन्म होता है।
बुझ गए प्रदीप की तरह उसका निर्वाण हो जाता है। और, इस निरोध की प्राप्ति का मार्ग आर्यसत्य – आष्टांगिक मार्ग है। इसके आठ अंग हैं-
- सम्यक् दृष्टि –चार आर्य सत्य में विश्वास करना।
- सम्यक् संकल्प – मानसिक और नौतिक विकास की प्रति ज्ञा करना।
- सम्यक् वचन – हानिकारक बातें और झूठ न बोलना।
- सम्यक् कर्मांत – बुरे कर्म न करना।
- सम्यक् आजीविका – कोई भी हानिकारक व्यापार न करना।
- सम्यक् व्यायाम – अपने आप को स्वस्थ रखने का प्रयास करना।
- सम्यक् स्मृति – स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना।
- सम्यक् समाधि – निर्वाण पाना।
इस आर्यमार्ग(अष्टांगिक मार्ग) को सिद्ध कर व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
इन 8 अंगों को तीन भागों में विभाजित किया गया है-
- प्रज्ञा-(सम्यक दृष्टि,सम्यक संकल्प, सम्यक वाक)
- शील– (सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका)
- समाधि– (सम्यक व्यायाम, सम्यक समाधि, सम्यक स्मृति)
चार आर्य सत्य क्या हैं?
प्रश्न: राशिफल का उद्देश्य किसी व्यक्ति के चरित्र और भविष्य की भविष्यवाणी में?
उत्तर: चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म की मौलिक मान्यताएँ हैं। परम्परा के अनुसार, गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात् उनके सन्देश में इन धारणाओं के विवरण पाए जाते हैं। बौद्ध विचारों के अनुसार, इन विचारों पर विश्वास करना उन्हें अनुभव करने जितना महत्वपूर्ण नहीं है। पुनर्जन्म (संसार चक्र) और निर्वाण में विश्वास के साथ, चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म के लगभग सभी रूपों की सोच को आकार प्रदान करते हैं। संक्षेप में, ये चार धारणाएँ 1) दु:ख की वास्तविकता का होना, 2) संसार की अस्थिरता का होना, 3) इच्छा को मार देने से प्राप्त होने वाला मोक्ष, और 4) आष्टांगिक मार्ग को पालन करने की आवश्यकता है।
पहला आर्य सत्य जिसे दु:ख के सिद्धान्त के रूप में भी जाना जाता है, का दावा है कि जीने के लिए पीड़ा का होना आवश्यक है। शब्दावली भ्रमित करने वाली हो सकती है, क्योंकि बौद्ध धर्म यह दावा नहीं करता है कि सभी अनुभव अप्रिय होते हैं। दु:ख की धारणा अधिक जटिल है, यह चिन्ता, निराशा या असन्तोष जैसे विचारों का सुझाव देती है। यही बौद्ध धर्म की मूल धारणा है, और अन्य सभी मान्यताएँ और प्रथाएँ इस पहले आर्य सत्य पर आधारित हैं। बौद्ध अनुयायियों का मानना है कि दु:ख व्याख्या करता है कि मानव जाति के साथ क्या गलत है: अर्थात् यह गलत इच्छाओं, विशेष रूप से, केवल अस्थायी चीजों की इच्छा से होने वाली पीड़ा है। यह समस्या दूसरे आर्य सत्य में और अधिक वर्णित की गई है।
बौद्ध धर्म का दूसरा आर्य सत्य, जिसे एनिक्का (“अस्थिरता”) या तन्हा (“लालसा”) या समुदय भी कहा जाता है, ऐसे कहता है कि ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थायी या अपरिवर्तनीय नहीं है। वास्तव में, एक व्यक्ति का स्वयं भी स्थायी या अपरिवर्तनीय नहीं है। यह बौद्ध धर्म का स्पष्टीकरण है कि मानव जाति क्यों है। चूंकि दु:ख इच्छा के कारण होता है, जो कि अस्थाई है, इसलिए सभी इच्छाएँ अन्ततः दु:ख का ही कारण बनती हैं। यहाँ तक कि सकारात्मक इच्छाएँ पुनर्जन्म और दु:ख के चक्र को बनाए रखती हैं। इस पर नियन्त्रण पाने के लिए, किसी को तीसरे आर्य सत्य को समझना चाहिए।
तीसरा आर्य सत्य कहता है कि दु:ख, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होने का एकमात्र तरीका अस्थायी चीजों के लिए इच्छाओं को पूरी तरह समाप्त कर देना। बौद्ध धर्म इस कथन को इस प्रश्न, “मानव जाति के साथ जो कुछ गलत है, उसे हम कैसे सही करते हैं?” के उत्तर के रूप में देखता है। अपने व्यवहार में, तीसरा आर्य सत्य पूरी तरह से सभी इच्छाओं, अच्छी, बुरी और अन्यथा का निरोध करने के लिए कहता है। इसे पूरा करने के साधन चौथे आर्य सत्य में पाए जाते हैं।
चौथा आर्य सत्य यह है कि आर्य आष्टांगिक मार्ग पर चलने के द्वारा इस इच्छा को समाप्त किया जा सकता है। मानव जाति की त्रुटियों “कैसे” को सुधारने के लिए बौद्ध धर्म की योजना इसी में पाई गई है। आष्टांगिक मार्ग को सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कर्म, सही आजीविका, सही व्यायाम, सही स्मृति और सही समाधि या ध्यान के रूप में परिभाषित किया गया है।
बौद्ध धर्म के अनुसार, चार आर्य सत्यों को लागू करके और आर्य आष्टांगिक मार्ग के द्वारा जीवन व्यतीत करके पुनर्जन्म और दु:ख के चक्र को समाप्त कर सकते हैं। यह किसी व्यक्ति को पूरी तरह से इच्छा, लालसा, खिचाव, या निराशा से रहित अवस्था में ले जाता है। “शून्यता” की इस स्थिति को निर्वाण के रूप में जाना जाता है और यही स्वर्ग के लिए दिया गया बौद्ध विकल्प है। जो निर्वाण प्राप्त करता है, वह एक व्यक्ति के रूप में अस्तित्व में नहीं रहता है, और पुनर्जन्म और भव चक्र की प्रक्रिया को रोक लेता है।
जैसा कि अधिकांश मुख्य वैश्विक दृष्टिकोण के साथ होता है, चार आर्य सत्यों में पाए जाने वाले सभी तत्व पूरी तरह से बाइबल के विरोधाभासी नहीं हैं। गलत इच्छाएँ चिन्ता और पाप के मुख्य स्रोत हैं (रोमियों 13:14; गलतियों 5:17)। नाशवान जीवन निश्चित रूप से परिवर्तन के अधीन है, और यह संक्षिप्त है (याकूब 4:14)। साथ ही, ऐसी चीजों में निवेश करना मूर्खता नहीं है, जो स्थायी नहीं हैं (मत्ती 6:19-20)। यद्यपि, शाश्वत अवस्था और परिवर्तन की प्रक्रिया के विषय में, चार आर्य सत्य बाइबल की मसीहियत के साथ बड़े पैमाने पर विचलित हो जाते हैं।
बाइबल शिक्षा देती है कि परमेश्वर शाश्वत है, और जो स्वर्ग में उसके साथ हैं, वे सदैव उसके राज्य का आनन्द लेंगे (मत्ती 25:21; यूहन्ना 4:14; 10:28)। वही अनन्त चेतना – आनन्द के बिना उन लोगों पर लागू होती है, जो परमेश्वर को अस्वीकार करना चुनते हैं (2 थिस्सलुनीकियों 1:9)। उनकी नियति को दु:ख की एक सचेत, व्यक्तिगत अवस्था के रूप में वर्णित किया गया है (लूका 16:22-24)। बौद्ध धर्म शिक्षा देता है कि हमारा अनन्त काल या तो अन्तहीन पुनर्जन्म या अस्तित्वहीनता की विस्मृति है। बाइबल कहती है, “और जैसे मनुष्यों के लिये एक बार मरना और उसके बाद न्याय का होना नियुक्त है” (इब्रानियों 9:27)।
मसीहियत और बौद्ध धर्म दोनों शिक्षा देते हैं कि लोगों को अपनी इच्छाओं और उनके व्यवहार को परिवर्तित करने की आवश्यकता है, परन्तु केवल मसीहियत ऐसा करने के लिए एक यथार्थवादी साधन प्रदान करती है। बौद्ध धर्म में, स्वयं के निर्देशित प्रयासों के माध्यम से अपनी इच्छाओं को परिवर्तित करने के लिए कहा जाता है। दुर्भाग्यवश, इसका अर्थ है कि किसी को अपनी इच्छाओं को छोड़ने की इच्छा का होना, जो कि स्वयं में ही एक अन्तर्निहित समस्या है। बौद्ध अनुयायी जो इच्छा से स्वयं को छुटकारा दिलाना चाहता है, वह अभी भी कुछ करने की इच्छा रखता है। बौद्ध धर्म इस बात का भी उत्तर देने के लिए कुछ नहीं करता कि कोई व्यक्ति ऐसे मन को कैसे परिवर्तित कर सकता है, जो परिवर्तित होने के लिए अनिच्छुक और स्वयं-को-धोखा देने वाला है (यिर्मयाह 17:9; मरकुस 9:24)। मसीहियत इन दोनों समस्याओं का उत्तर प्रदान करती है: एक उद्धारकर्ता, जो न केवल हमारे द्वारा किए गए कार्यों को परिवर्तित करता है (1 कुरिन्थियों 6:11) परन्तु उसे भी जिसे हम करना चाहते हैं (रोमियों 12:2)।
बौद्ध और मसीही मान्यताओं के बीच कई अन्य भिन्नता भी पाई जाती हैं। जबकि बौद्ध धर्म शिक्षा देता है कि जीवन दु:ख से भरा है, बाइबल कहती है कि जीवन की रचना आनन्द लिए जाने के लिए की गई है (यूहन्ना 10:10)। बौद्ध धर्म कहता है कि स्वयं को समाप्त करने की आवश्यकता है, जबकि बाइबल कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति मूल्यवान और सार्थक है (उत्पत्ति 1:26-27; मत्ती 6:26) और यह कि मृत्यु के पश्चात् स्वयं बना रहता है (यूहन्ना 14:3)।
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