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राजपूतों का उदय – RISE OF RAJPUT CLANS IN INDIA

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राजपूतों का उदय

राजपूतों का उदय

जरुर पढ़े… 

राजपूतों का उदय Rise of Rajput

  • हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तर राजनीतिक एकता नष्ट होने लगी तब भारत में अनेक नए राजवंशों का उदय हुआ
  • यह समस्त राजवंश सामूहिक रूप से राजपूत कहलाए
  • सातवीं शताब्दी के मध्य से 12 वीं शताब्दी की समाप्ति तक का समय राजपूत युग कहलाता है
  • राजपूत शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 7 वीं शताब्दी में किया गया था
  • राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में अनेक मत दिए गए हैं
  • कर्नल जेम्स टॉड ने इन्हें शक युनानी या सीटीएम कहा सिथीयन के वंशज बताया गया है
  • कनिंघम ने इन्हें यूची कुषाण वंश का बताया है
  • श्री ओझा एवं श्री वेद जी राजपूतों को भारतीय आर्यों की संतान मानते हैं
  • दशरथ शर्मा व विश्व भर शरण पाठक ने राजपूतों को प्राचीन ब्राह्मणों के वंशज बताया है
  • मनुस्मृति में क्षत्रियों की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी गई है
  • चंद्रवरदाई ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य पृथ्वीराज रासो मे राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुंड से बताई गई है
  • विदेशी इतिहासकारों ने राजपूतों को विदेशी जातियों की संतान मना है
  • भारतीय इतिहासकारों ने राजपूतों को देसी जातियों की संतान माना है
  • सर्वमान्य मत वी ए स्मिथ का है जिन्होंने राजपूतों को मिश्रित जाति माना है
  • परर्वती ग्रंथों में राजपूतों की 36 शाखाओं का उल्लेख किया गया है

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया तेज हो गयी। किसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति के अभाव में छोटे छोटे स्वतंत्र राज्यों की स्थापना होने लगी। 7-8 शताब्दी में उन स्थापित राज्यों के शासक ‘ राजपूत’ कहे गए। उनका उत्तर भारत की राजनीति में बारहवीं सदी तक प्रभाव कायम रहा। भारतीय इतिहास में यह काल ‘राजपूत काल’ के नाम से जाना जाता है।

कुछ इतिहासकर इसे संधिकाल का पूर्व मध्यकाल भी कहते हैं, क्योंकि यह प्राचीन काल एवं मध्यकाल के बीच कड़ी स्थापित करने का कार्य करता है। ‘राजपूत’ शब्द संस्कृत के राजपुत्र का ही अपभ्रंश है। संभवतः प्राचीन काल में इस शब्द का प्रयोग किसी जाति के रूप में न होकर राजपरिवार के सदस्यों के लिए होता था, पर हर्ष की मृत्यु के बाद राजपुत्र शब्द का प्रयोग जाति के रूप में होने लगा।

इन राजपुत्रों के की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रचलित हैं। कुछ विद्वान इसे भारत में रहने वाली एक जाति मानते हैं, तो कुछ अन्य इन्हें विदेशियों की संतान मानते हैं। कुछ विद्वान् राजपूतों को आबू पर्वत पर महर्षि वशिष्ट के अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ मानते हैं। प्रतिहार, चालुक्य, चौहान और परमार राजपूतों का जन्म इसी से माना जाता है।

  • कर्नल टॉड जैसे विद्वान राजपूतों को शक, कुषाण तथा हूण आदि विदेशी जातियों की संतान मानते हैं।
  • डॉ. ईश्वरी प्रसाद तथा भंडारकर आदि विद्वान् भी राजपूतों को विदेशी मानते हैं।
  • जी.एन.ओझा. और पी.सी. वैद्य तथा अन्य कई इतिहासकार यही मानते हैं की राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की ही संतान हैं।
  • स्मिथ का मानना है की राजपूत प्राचीन आदिम जातियों – गोंड, खरवार, भर, आदि के वंशज थे।

इस काल में उत्तर भारत में राजपूतों के प्रमुख वंशों – चौहान, परमार, गुर्जर, प्रतिहार, पाल, चंदेल, गहड़वाल आदि ने अपने राज्य स्थापित किये।

हूणों के आक्रमण के कारण साम्राज्य के पतन के पश्चात गुप्तोत्तर काल में पाटलिपुत्र के स्थान पर कन्नौज का राजनीतिक सत्ता के केंद्र के रुप में उदय हुआ।  डॉ ईश्वरी प्रसाद ने इस समय को राज्य के अंदर राज्यों का काल कहा है।

सामंतवाद का उत्कर्ष इस काल की प्रमुख विशेषता थी जिसने प्रशासनिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा दिया और देश की राजनीतिक एकता को नष्ट कर दिया। एक शक्तिशाली राजवंश के स्थान पर इस युग में उत्तर भारत में अनेक राजपूत राजवंशो ने शासन किया। इसलिए इस युग कोराजपूत युग भी कहा जाता है।

राजपूत शब्द का प्रयोग नवीं शताब्दी से पूर्व नहीं हुआ है। राजपूत संस्कृत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है।

राजपूतों की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत ( Principles related to Origin of Rajputs )

सिद्धान्त विद्वान

  1. आबू पर्वत पर चंद्रवरदाई का वशिष्ठ के पृथ्वीराज रासो अग्निकुंड से उत्पन्न।
  2. शक कुषाण हूण कर्नल टॉडआदि विदेशी जातियों डॉ ईस्वरी  की संतान। प्रसाद
  3. प्राचीन क्षत्रियों जी एच ओझाकी संतान। सी वी वैद्य
  4. सामाजिक आर्थिक वी डी चटोपाध्यायप्रक्रिया की उपज
  5. प्राचीन आदिम स्मिथजातियों गोंड खरवार भर आदि के वंशज
  6. यू-ची(कुषाण) कनिंघमजाति के वंशज
  7. विभिन्न जातियों दशरथ शर्मा का मिश्रण विशुद्धानंद पाठक

अग्निकुंड से 4 जातियों की उत्पत्ति मानी जाती है यह है

1. गुर्जर प्रतिहार (परिहार)
2.चालुक्य (सोलंकी)
3.चाहमान (चौहान)
4.परमार

पृथ्वीराज रासो में 36 राजपूत कुलों का उल्लेख मिलता है।

त्रिपक्षीय संघर्ष ( Trilateral conflict )

हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज पर अधिकार को लेकर प्रतिहारों, पालों और राष्ट्रकूटों के बीच 8वीं शताब्दी के मध्य से 10वी शताब्दी के मध्य एक संघर्ष प्रारम्भ होता है जो भारतीय इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष के नाम से विख्यात है।

इस संघर्ष में अन्ततः प्रतिहारों की विजय होती है तथा उनका कन्नौज पर अधिकार स्थापित हो जाता है। प्रतिहारों के पतन के बाद कन्नौज पर गहड़वालों का आधिपत्य हो जाता हे। ये काशी नरेश के नाम से विख्यात थे।

प्रतिहारों के पतन के बाद उत्तर भारत में कुछ अन्य राजवंशों का उदय भी होता है। इनमें दिल्ली तथा अजमेर के चाहमान, बुन्देलखण्ड के चन्देल, मालवा के परमार और त्रिपुरी के कल्चुरी शामिल थे।

 इन सभी राजवंशों में परमार, राष्ट्रकूटों के सामन्त माने जाते हैं जबकि शेष अन्य प्रतिहारों के।

त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेने वाले शासक:-

प्रतिहार वंश             राष्ट्रकूट वंश        पालवंश

1. वत्सराज               ध्रुव                     धर्मपाल

2. नागभट्ट द्वितीय   गोविन्द तृतीय       देवपाल

3. रामभद्र             अमोघवर्ष प्रथम     विग्रह पाल

4. मिहिर भोज        कृष्ण द्वितीय        नारायण पाल

5. महेन्द्र पाल

हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज पर आयुध शासकों का शासन था। इनमें दो भाइयों चक्रयुध एवं इन्द्रायुध को लेकर गद्दी के लिए संघर्ष चल रहा था। इसी समय प्रतिहारों पालों एवं राष्ट्रकूटों ने हस्तक्षेप किया।

Rajput era ( राजपूत युग 7 – 8 वीं शताब्दी)

आधुनिक समय में राजपूत शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कर्नल टाड़ ने अपनी पुस्तक में किया। राजपूत शब्द एक जाति के रूप में अरब आक्रमण के बाद ही प्रचलित हुआ। भारतीय इतिहास में 7वीं से 12वीं शताब्दी के बीच का काल राजपूत काल के नाम से विख्यात है।

ऋग्वेद में राजन् शब्द का प्रयोग मिलता है। अर्थशास्त्र में इनके लिए राजपूत शब्द का प्रयोग किया गया। युवांग च्वांग ने इन्हें क्षत्रिय कहा और अरब आक्रमण के बाद राष्ट्रकूट शब्द का प्रचलन हुआ। इनकी उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है।

राजपूतों की उत्पत्ति ( Origin of Rajputs )

प्राचीन क्षत्रियों से:-गौरी शंकर ओझा जैसे इतिहासकार राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों से उत्पन्न मानते हैं इनके अनुसार प्राचीन क्षत्रिय ही आगे चलकर राजपूतों के नाम से प्रसिद्ध हो गये।

विदेशी उत्पत्तिः-कुछ विदेशी इतिहासकार जैसे-कर्नल टॉड एवं स्मिथ आदि लोग विदेशी जातियों शक, कुषाण, सीथियन आदि से इनकी उत्पत्ति मानते हैं।

लक्ष्मण से:- प्रतिहारों के अभिलेखों में इनकी उत्पत्ति लक्ष्मण से दर्शायी गई है। इनके अनुसार लक्ष्मण ने जैसे द्वारपाल के रूप में रामचन्द्र की रक्षा की थी उसी तरह प्रतिहारों ने आखों से भारत की। प्रतिहार का अर्थ ही द्वारपाल होता है।

अग्निकुण्ड सिद्धान्त से:- चन्द्रबरदाई द्वारा लिखी पुस्तक पृथ्वीराज रासो में अग्निकुण्ड सिद्धान्त का उल्लेख प्राप्त होता है। यह पदमगुप्त के नवसहशांक, चरित सूर्यमल के वंश भास्कर आदि में भी प्राप्त होता है।

पृथ्वी राज रासो के अनुसार गौतम, अगस्त्य, वशिष्ठ आदि तीनों ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ से उन्होंने तीन योद्धाओं प्रतिहार, चालुक्य एवं परमार को पैदा किया। बाद में चार भुजाओं वाले एक अन्य योद्धा चाहमान की उत्पत्ति की।

इस प्रकार अग्नि कुण्ड सिद्धान्त से कुल चार राजपूतों की उत्पत्ति दर्शायी गयी है। अग्निकुंड सिद्धान्त का विशेष महत्व है क्योंकि अग्नि पवित्रता का प्रतीक है। ऐसा लगता है कि कुछ विदेशी लोगों को भी अग्नि के माध्यम से पवित्र कर राजपूतों में शामिल कर लिया गया।

राष्ट्रकूट वंश ( Rashtrakuta Dynasty )

  • संस्थापकः– दन्तिदुर्ग
  • राजधानी:– मान्यखेत या मात्यखण्ड (आन्ध्रप्रदेश)
  • दन्तिदुर्ग (752-56) –यह चालुक्यों का सामन्त था इसने आधुनिक आन्ध्रप्रदेश में अपने राज्य की स्थापना की।

राष्ट्रकूट लोग मुख्यतः लाट्टलर (वर्तमान आन्ध्र प्रदेश) के निवासी माने जाते है। यह ब्राह्मण धर्मावलम्बी था तथा उज्जैन में अनेक यज्ञ किये।

कृष्ण प्रथम (756-73):- इसने एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मन्दिर का निर्माण करवाया।

गोविन्द द्वितीय (773-80)

ध्रुव (780-93):- राष्ट्रकूटों की तरफ ने त्रिपक्षीय संघर्ष में इसी शासक ने भाग लिया। इसका एक नाम धारावर्ष भी है।

गोविन्द तृतीय (793-814):- यह राष्ट्रकूट वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था।

अमोघवर्ष (814-78):- अमोघवर्ष ने एक नये नगर मान्यखेत या माल्यखण्ड का निर्माण किया और अपनी राजधानी एलिचुर अथवा बरार से यहीं स्थानान्तरित की।

यह स्वयं भी विद्वान था और अन्य विद्वानों का आश्रयदाता भी था। इसने कन्नड़ भाषा में एक प्रसिद्ध ग्रन्थ कविराज मार्ग की रचना की। इसके दरबार में निम्न महत्वपूर्ण विद्वान भी थे।

  1. जिनसेन – आदिपुराण
  2. महावीराचार्य – गणितारा संग्रह
  3. शक्तायना – अमोघवृत्ति

वैसे तो अमोघवर्ष जैन धर्म का उपासक था परन्तु संजन ताम्रपत्र से पता चलता है कि एक अवसर पर इसने अपने बायें हाथ की अंगुली देवी को चढ़ा दी थी।

कृष्ण द्वितीय (878-914)

इन्द्र तृतीय (915-927):- इसके समय ही ईराकी यात्री अलमसूदी भारत आया था। उसने इन्द्र तृतीय को भारत का सर्वश्रेष्ठ शासक बताया।

कृष्ण तृतीय (939-965):- कृष्ण तृतीय ने अपने समकालीन चोल शासक परान्तक प्रथम को तक्कोलम के युद्ध में पराजित किया। इसने रामेश्वरम् तक धावा बोला तथा वहीं एक विजय स्तम्भ तथा एक देवालय की स्थापना करवाई।

खोटिटग (965-72)- इसके समय में परमार नरेश सीयक ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेत पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया।

कर्क द्वितीय (972-74):- इसके सामन्त तैलप द्वितीय ने इस पर आक्रमण कर इसे पराजित कर दिया। तैलप ने जिस नये वंश की नींव रखी उसे कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य कहा जाता है।

प्रतिहार वंश ( Pratihar dynasty )

  • संस्थापक:- हरिश्चन्द्र जो ब्रहमक्षत्री था।
  • राजधानी:- कन्नौज परन्तु प्रारम्भिक राजधानी भिन्न माल ( राजस्थान )

नागभट्ट प्रथम (730-56):- इस वंश का यह वास्तविक संस्थापक था। ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि इसने अरबों को पराजित किया था।

वत्सराज (778-805)

नागभट्ट द्वितीय (805-833)

रामभद्र (833-836)

मिहिर भोज (836-82):- यह प्रतिहार वंश का महानतम शासक था। इसके स्वर्ण सिक्के पर आदि वाराह शब्द का उल्लेख मिलता है जिससे इसका वैष्णव धर्मानुयायी पता चलता है। इसी के समय में अरब यात्री सुलेमान भारत आया जिसने इस शासक की बहुत प्रशंसा की है। इसी ने भिन्न माल से अपनी राजधानी कन्नौज स्थानान्तरित की।

6. महेन्द्र पाल प्रथम (885-910):- यह प्रतिहार वंश का शक्तिशाली शासक था। इसके समय में इस राजवंश का सर्वाधिक विस्तार हुआ।इसके दरबार में संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर रहता था। उसने निम्नलिखित प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे-काब्य मीमांसा, कर्पूरमंजरी, भिदूशाल भंजिका, बालरामायण, भुव कोष, हरविलास।

राजशेखर कुछ समय के लिए त्रिपुरी के कल्चुरी के वंश में चला गया था और वहाँ के शासक के यूरवर्ष या युवराज प्रथम के काल में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ काब्य मीमांसा तथा कर्पूर मंजरी की रचना की।

7. भोज द्वितीय (910-12)

8. महीपाल (912-44)- इसी के समय में ईराक का यात्री अलमसूदी भारत आया। राजशेखर इसके दरबार से भी सम्बन्धित था।

9. महेन्द्रपाल द्वितीय (944-46)
10. देवपाल (946-49)

11. विनायक पाल (949-54 ई0)

12. राज्यपाल (1018):- इसी के समय में महमूद गजनवी ने 1018 ई0 में कन्नौज पर आक्रमण किया। राज्यपाल अपनी राजधानी छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

इस वंश का अन्तिम शासक यशपाल था। इसी के बाद कन्नौज के गहड़वालों ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और उन्होंने गहड़वाल वंश की नींव डाली।

पालवंश ( Pal dynasty )

  • संस्थापक-गोपाल
  • राजधानी-नदिया

शशांक की मृत्यु के बाद बंगाल में 100 वर्षों तक अराजक्ता व्याप्त रही तब नागरिकों ने स्वयं इससे ऊबकर एक बौद्ध मतानुयायी गोपाल को अपना शासक बनाया। गोपाल ने जिस वंश की नींव रखी उसे पाल वंश कहा जाता है।

गोपाल (750-770):- गोपाल बौद्ध धर्म मतानुयायी था। इसे आम जनता ने गद्दी पर बैठाया (मध्य काल में फिरोज तुगलक और रजिया ऐसे दो शासक थे जो जनता द्वारा बैठाये गये)/ इसने बंगाल में ओदन्तपुरी विद्यालय की स्थापना की।

धर्मपाल (770-810 ई0):-

  1. उपाधि:- परमसौगत, अन्य उपाधियों उत्तरपथ स्वामी (यह उपाधि गुजरात कवि सोडढल ने इसे प्रदान की।
  2. इसने प्रसिद्ध विद्यालय विक्रमशिला की स्थापना की।
  3. नालन्दा विश्वविद्यालय के खर्च के लिए दो सौ ग्राम दान में दिये।
  4. इसने बंगाल के प्रसिद्ध सोमपुरी बिहार की स्थापना की जो इसके पूर्व में पड़ता है। प्रसिद्ध लेखक ताराचन्द्र ने लिखा है कि इसने बंगाल में 50 से अधिक धार्मिक विद्यालयों की स्थापना करवाई थी। इसके दरबार में प्रसिद्ध बौद्ध लेखक हरिभद्र निवास करता था।

देवपाल (810-50):- उपाधि,- परमसौगत
यह बंगाल के शासकों में सबसे शक्तिशाली शासक था। इसने समकालीन प्रतिहार नरेश मिहिरभोज को पराजित किया।
अरब यात्री सुलेमान इसके समय में भी भारत आया था तथा इसे अत्यन्त श्रेष्ठ शासक बताया है। इसके समय में शैलेन्द्र वंशी शासक बालपुत्र देव ने नालन्दा में एक बौद्ध मठ की स्थापना की। इसके खर्च हेतु देवपाल ने पाँच ग्राम दान में दिये।

इसने अपनी राजधानी नदिया से मुगेर में स्थानान्तरित कर ली। 850 से 988 ई तक पाल वंश का इतिहास पतन का काल माना जाता है। इस समय के शासकों के नाम नहीं प्राप्त होते हैं इसके बाद महीपाल गद्दी पर बैठता है।

महीपाल (988-1038):- चूँकि महीपाल ने दुबारा पाल वंश की शक्ति को स्थापित किया इसी लिए इसे पालवंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है। परन्तु इसके काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना चोल शासक राजेन्द्र चोल का इसके राज्य पर आक्रमण था। राजेन्द्र चोल ने इसे पराजित कर गंगइकोंडचोल की उपाधि धारण की।

नयपाल (1038-55)

रामपाल (1077-1120):- रामपाल के समय में भारतीय इतिहास का प्रथम कृषक विद्रोह हुआ। यह कैवर्त (केवट) जातियों द्वारा किया गया इसका पता सन्ध्याकर नन्दी की पुस्तक रामचरित से चलता है। (आधुनिक काल में पहला कृषक विद्रोह नील विद्रोह माना जाता है।)

इसने मध्य-प्रदेश में जगदलपुर में एक विद्यालय की स्थापना की। रामपाल के बाद मदन पाल ने 1161 ई0 तक राज किया। इसके बाद पालों की सत्ता सेन वंश के हाथों चली गई।

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