
भारत के राष्ट्रपति पर निबंध | Essay on the President of India in Hindi
जिला प्रशासन: कार्य, शक्तियां एवं महत्त्व | Jila Prashaasan: Kaary, Shaktiyaan Evan Mahattv-Hello Friends, Welcome to wikimeinpedia.com, दोस्तों जैसा की आप लोग जानते ही है की हम आपको प्रतिदिन कुछ नई study मटेरियल provides करते है | दोस्तों आज मैं आप सभी के लिए “ essay on the President of India in Hindi ” की महत्वपूर्ण नोट्स लेकर आये है | भारत के राष्ट्रपति पर निबंध | Essay on the President of India in Hindi. Essay Contents: भारत मे राष्ट्रपति का महत्व (Importance of President in India); भारत के राष्ट्रपति की योग्यताएँ (Presidential Qualifications
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भारत के राष्ट्रपति पर निबंध | Essay on the President of India in Hindi.
Essay Contents:
- भारत मे राष्ट्रपति का महत्व (Importance of President in India)
- भारत के राष्ट्रपति की योग्यताएँ (Presidential Qualifications)
- राष्ट्रपति पद के निर्वाचन प्रणाली (Election System for the President)
- राष्ट्रपति की वास्तविक –स्थिति (Presidential Status)
- राष्ट्रपति का वेतन एवं भत्ता आदि (President’s Salary and Allowance etc.)
- राष्ट्रपति पर महाभियोग (Impeachment on the President)
Essay # 1. भारत मे राष्ट्रपति का महत्व (Importance of President in India):
भारत में संसदीय शासन प्रणाली का अनुसरण किया गया है जिसमें संघ कार्यपालिका के शीर्ष पर भारत का राष्ट्रपति है । संघ की समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है ।
संविधान की धारा 53(1) में यह व्यवस्था की गई है कि संघ की कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथ में रहेगी तथा वह इन शक्तियों का प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं अथवा अपने अधीन पदाधिकारियों द्वारा करेगा । इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्रपति कार्यपालिका के औपचारिक प्रधान के रूप में है ।
संविधान की धारा 74 (1) में कहा गया है कि राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए एक मंत्रिमंडल की व्यवस्था की गई है जिसका मुखिया प्रधानमंत्री होगा । इसका कार्य देश का शासन चलाने के लिए राष्ट्रपति को सहायता तथा परामर्श देना होगा ।
इस प्रकार संघीय कार्यपालिका की शक्तियाँ राष्ट्रपति पद में निहित होती है जिनका प्रयोग मंत्रिमंडल द्वारा किया जाता है । भारत के राष्ट्रपति की स्थिति इंग्लैंड की सम्राज्ञी के समान है जो संघ का मुखिया तो है पर मंत्रिमंडल के परामर्श के बिना कुछ कार्य नहीं कर सकता ।
फिर भी राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रथम व्यक्ति है । उसका पद गौरव, गरिमा और प्रतिष्ठा का है । उसका पद शासन की धुरी के रूप में कार्य करता है जो शासन व्यवस्था में संतुलन बनाये रखता है ।
Essay # 2. भारत के राष्ट्रपति की योग्यताएँ (Presidential Qualifications):
अनुच्छेद 52 के अनुसार भारत का एक राष्ट्रपति होगा । भारत के राष्ट्राध्यक्ष एवं सर्वोच्च पद राष्ट्रपति की नियुक्ति चुनाव के द्वारा होती है । संसद के दोनों सदनों और राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा राष्ट्रपति का चुनाव किया जाता है । यह चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल संक्रमण मत पद्धति द्वारा होता है ।
इसका कार्यकाल पद ग्रहण करने से पाँच वर्ष तक का होता है । प्रायः कार्यकाल पूरा हो जाने के पूर्व ही अथवा छ: माह के अंदर नए राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न होना चाहिए । नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण करने तक पुराना राष्ट्रपति ही कार्य करता है ।
राष्ट्रपति पद की योग्यताएँ:
संविधान के अनुच्छेद 58 में राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित होने वाले व्यक्ति की निम्नलिखित योग्यताएँ निश्चित की गई हैं:
1. वह भारत का नागरिक होना चाहिए
2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो । तथा
3. लोकसभा का सदस्य चुने जाने की योग्यता रखता हो ।
इसके अतिरिक्त यदि कोई उम्मीदवार भारत सरकार, राज्य सरकार या किसी स्थानीय सरकार के अंतर्गत लाभ के पद पर हो तो वह राष्ट्रपति के पद का उम्मीदवार नहीं हो सकता लेकिन एम॰एल॰ए॰ एम॰पी॰ और राज्यपाल आदि उम्मीदवार हो सकते हैं किंतु यदि वह राष्ट्रपति पद के लिए चुना जाता है तो उसे अपने पुराने पदों से त्यागपत्र देना पड़ता है । एक व्यक्ति कितनी बार राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार अथवा राष्ट्रपति हो सकता है, इस विषय में संविधान मौन है ।
Essay # 3. राष्ट्रपति पद के निर्वाचन प्रणाली (Election System for the President):
राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होने के लिए निर्वाचकों में से कम से कम 50 उसके नामों का प्रस्ताव रखे तथा कम से कम 50 निर्वाचकों का उनके नाम का समर्थन करना आवश्यक है । राष्ट्रपति पद के लिए Rs.15,000 जमानत राशि के रूप में निश्चित किये गए हैं । राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा न होकर एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है ।
इस निर्वाचक मंडल में अनुच्छेद 54 के अनुसार संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य तथा राज्यों के विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य सम्मिलित होते हैं । इसमें राज्य की विधान परिषदें और केन्द्रशासित प्रदेशों की विधानसभाएं शामिल नहीं होती ।
लेकिन 70वें संविधान संशोधन (1992) विधेयक द्वारा पांडिचेरी विधान सभा तथा दिल्ली की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को आगामी राष्ट्रपति चुनावों में भाग लेने की अनुमति दे दी गई । अतः अब राष्ट्रपति के चुनावों में दिल्ली और पांडिचेरी की विधानसभा के सदस्य भी भाग लेते हैं ।
निर्वाचन प्रक्रिया:
संविधान के अनुसार जहां तक संभव हो सकेगा राष्ट्रपति के चुनाव में मित्र-मित्र राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाएगा । इसी तरह संसद के सदस्यों तथा राज्य की विधानसभाओं के सदस्यों के मतों में समानता होगी । साधारणतः निर्वाचक मंडल के प्रत्येक सदस्य को एक वोट देकर एकरूपता स्थापित की गई है परंतु यह इसलिए संभव नहीं हो सकता क्योंकि भारत के राज्यों की न जनसंख्या समान है और न उसकी विधानसभाओं के सदस्यों की संख्या । इसके अतिरिक्त जनसंख्या और निर्वाचित सदस्यों का अनुपात भी समान नहीं है ।
किसी राज्य के एक एम॰एल॰ए॰ के मत का मूल्य:
अनुच्छेद 55(2) के अनुसार किसी राज्य की विधानसभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मत का मूल्य प्राप्त करने के लिए राज्य की जनसंख्या को विधानसभा में कुल चुने हुए सदस्यों की संख्या से भाग से प्राप्त संख्या में एक हजार से भाग देने से प्राप्त भागफल होगा । यदि शेषफल 500 या 500 से अधिक हो तो मत के मूल्य में एक मत की वृद्धि कर दी जाती है ।
एक निर्वाचित एम॰एल॰ए॰ के मत का मूल्य:
उदाहरण: – मान लीजिये आंध्र प्रदेश की जनसँख्या 43502708 है. विधानसभा सदस्यों की संख्या 294 है. सर्वप्रथम 43502708 को 294से भाग देंगे. और जो शेषफल होगा (147968.39451), उसको 1000 से भाग देंगे = 148
148= एक निर्वाचित विधायक का मत मूल्य
संसद सदस्यों के मत मूल्य निकालने के लिए राज्य विधानसभाओं के कुल मत मूल्य में संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की संख्या [LOK SABHA (545) + RAJYA SABHA (245)] से भाग दिया जाता है. मतदाता वरीयता के आधार पर मत करते हैं. चुनाव में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रत्येक उम्मीदवार को एक न्यूनतम कोटा प्राप्त करना होता है.
एम॰पी॰ के मत का मूल्य:
संसद के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मत का मूल्य राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों के लिए निश्चित समस्त मत संख्या को संसद के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या से भाग देने पर प्राप्त होता है, यदि शेषफल 1/2 से अधिक बचता है तो भागफल में एक जोड़ दिया जाता है ।
उदाहरण के लिए जुलाई 2002 में संपन्न हुए राष्ट्रपति के चुनाव में संसद के सदस्यों की संख्या 776 थी (लोकसभा 543 और राज्यसभा 233) जबकि राज्य विधानसभाओं के कुल सदस्यों के कुल मतों की संख्या 5,49,474 थी ।
सूत्र के अनुसार = 5,49,474/776 = 708
मतदान प्रक्रिया एवं गणना:
निर्वाचन आयोग द्वारा निश्चित तिथि को राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मतदान दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में होता है । संसद के सदस्य दिल्ली में मतदान करते हैं जबकि राज्य विधानसभाओं के सदस्य राज्यों की राजधानियों में मतदान करते हैं । संसद सदस्य अपने-अपने राज्यों की राजधानियों में भी मतदान कर सकते हैं ।
चुनाव मत पत्र पर उम्मीदवारों के नाम अंकित होते हैं । मतदाताओं को अपनी प्राथमिकताएँ उन नामों के आगे 1 2,3,4, के रूप में अंकित करनी होती है परंतु वह अपनी पहली पसंद का मत एक ही उम्मीदवार को दे सकता है ।
मतगणना के पहले दौर में उम्मीदवारों को प्राप्त केवल पहली प्राथमिकता को ही गिना जाता है । यदि प्रथम दौर में ही किसी उम्मीदवार को निर्धारित कोटा से अधिक मत मिल जाते हैं तो उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है । लेकिन यदि प्रथम दौर में किसी भी उम्मीदवार को निर्धारित कोटा प्राप्त नहीं होता तो मतगणना का दूसरा दौर चलाया जाता है जिसके अंतर्गत उम्मीदवारों को मिली द्वितीय प्राथमिकताओं को गिना जाता है ।
यदि ऐसे अवसर पर ऐसा लगता है कि किसी उम्मीदवार को प्राप्त मत बहुत कम है और उसके विजयी होने की सम्भावना नहीं है तो उसके मतों को अन्य उम्मीदवारों के लिए हस्तांतरित कर दिया जाता है । यदि इस स्थिति में कोई उम्मीदवार निर्धारित कोटा प्राप्त कर लेता है तो उसे विजयी घोषित कर दिया जाता है । यह मतगणना और मत हस्तांतरण का दौर उस समय तक चलता है जब तक कोई उम्मीदवार विजयी नहीं हो जाता ।
अभी तक राष्ट्रपति के निर्वाचनों में केवल एक बार ही दूसरी प्राथमिकताओं को गिनने की आवश्यकता पडी है । पांचवें निर्वाचन में किसी भी उम्मीदवार को प्रथम मतगणना दौर में निर्धारित कोटा प्राप्त नहीं हुआ, अतः द्वितीय प्राथमिकताओं की गणना की गई और उसमें वी॰वी॰ गिरि विजयी घोषित किये गये ।
निर्धारित कोटा:
निर्धारित कोटा से तात्पर्य है कि उम्मीदवारों को विजयी होने के लिए स्पष्ट बहुमत प्राप्त करना होता है । जिसमें कुल वैध मतों के आधे से अधिक मत प्राप्त करने होते हैं । उदाहरण के लिए यदि कुल वैध मतों की संख्या 5,00,000 है तो प्रत्याशी को विजयी होने के लिए 2,50,001 मत प्राप्त करना होगा । राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित विवादों का निपटारा केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है ।
Essay # 4. राष्ट्रपति की वास्तविक –स्थिति (Presidential Status):
भारत में राष्ट्रपति का पद देश का सर्वोच्च पद है । संघीय कार्यपालिका के शीर्ष पर राष्ट्रपति ही विद्यमान होता है । परंतु व्यवहार में वह नाममात्र का कार्यपालिका होता है । उसकी समस्त शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद द्वारा किया जाता है जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करता है ।
अतः प्रश्न यह उठता है कि यदि राष्ट्रपति पद की समस्त शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद् द्वारा किया जाता है तो राष्ट्रपति पद का भारतीय शासन व्यवस्था में क्या औचित्य है? उसकी क्या विशेष भूमिका निर्धारित की जा सकती है? विभिन्न विचारकों का भी यही मत है कि शासन का वास्तविक भार प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिमंडल के कंधों पर होता है । राष्ट्रपति तो यदा-कदा सलाह मात्र दे सकता है ।
लेकिन 44वें संविधान संशोधन के द्वारा इस विवाद या प्रश्न को सुलझाने का काफी प्रयास किया गया है क्योंकि इस संशोधन के आधार पर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद से जो परामर्श प्राप्त होगा, उसके संबंध में राष्ट्रपति को अधिकार होगा कि वह मंत्रिपरिषद को उस परामर्श पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है लेकिन पुनर्विचार के बाद मंत्रिपरिषद से राष्ट्रपति को जो परामर्श प्राप्त होगा, राष्ट्रपति उस परामर्श के अनुसार कार्य करेगा ।
अतः 44वें संविधान संशोधन के पश्चात राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति क्या है, के संबंध में निम्न बातें कही जा सकती है:
1. राष्ट्रपति सामान्यतः संवैधानिक प्रमुख:
भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका के शीर्ष पर स्थित है लेकिन वह वास्तविक कार्यपालिका न होकर नाममात्र का कार्यपालिका है । उसके पद में निहित सभी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद द्वारा किया जाता है जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करता है । अतः इस दृष्टि से राष्ट्रपति की स्थिति एक औपचारिक संवैधानिक प्रमुख की तरह है ।
डा॰ अम्बेडकर के अनुसार, ”हमारे राष्ट्रपति की स्थिति वही है जो ब्रिटिश संविधान के अंतर्गत सम्राट की है । वह राज्य का प्रधान है, किंतु कार्यपालिका का नहीं । वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है किंतु राष्ट्र पर शासन नहीं करता….. ।”
2. राष्ट्रपति पद प्रतिष्ठा व सम्मान का पद:
संविधान के अनुसार राष्ट्रपति पद प्रतिष्ठा व सम्मान का पद है । इस पद को ग्रहण करने वाला व्यक्ति वास्तव में राष्ट्र का प्रतीक होता है । वह औपचारिक प्रधान होते हुए भी देश की शासन व्यवस्था में प्रथम स्थान रखता है । वह भारत का प्रथम व्यक्ति भी कहा जाता है । उसका जीवन और गतिविधियाँ व्यापक सार्वजनिक प्रचार प्राप्त करती है ।
वह जनता के लिए गौरव और प्रतिष्ठा का मूर्तरूप है तथा वह राष्ट्रीय उत्सवों का उद्घाटन व राष्ट्रीय समारोहों की अध्यक्षता करता है । नेहरू ने संविधान सभा में कहा था, ”हमने अपने राष्ट्रपति को वास्तविक शक्ति नहीं दी है वरन् हमने उसके पद को सत्ता और प्रतिष्ठा से विभूषित किया है” |
3. शासन व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग:
हालांकि राष्ट्रपति मात्र औपचारिक प्रधान होता है लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसके पद का कोई महत्व नहीं है । औपचारिक प्रधान होते हुए भी प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद पर राष्ट्रपति का विशेष प्रभाव होता है । राष्ट्रपति की सलाह व आदेश को वे अनदेखा नहीं कर सकते । प्रधानमंत्री भी मंत्रिमंडल द्वारा लिये गए निर्णयों को राष्ट्रपति तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध होता है ।
4. संशोधन के पश्चात:
भारत में राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति क्या है, प्रायः इस प्रश्न पर अनेक मतभेद उत्पन्न होते रहते थे । जहां कुछ विचारक राष्ट्रपति को वास्तविक संवैधानिक प्रधान मानते थे वहीं दूसरे कुछ विचारक उसकी स्थिति को एक रबड़ की मोहर के समान मानते थे ।
अतः इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए 1976 में संविधान में 42वां संशोधन किया गया जिसमें स्पष्ट किया गया कि ”राष्ट्रपति को सहायता और परामर्श देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद होगी और राष्ट्रपति अपने कार्यों के सम्पादन में मंत्रिपरिषद से प्राप्त परामर्श के आधार पर कार्य करेगा ।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि औपचारिक संवैधानिक प्रधान होते हुए भी राष्ट्रपति पद भारत शासन व्यवस्था में प्रतिष्ठा व सम्मान का पद है । यह ठीक है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के द्वारा ही कार्य करता है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में उभरते हुए अनिश्चितता के परिदृश्य के कारण राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण एवं सक्रिय बनती जा रही है । राष्ट्रपति की यह सक्रियता प्रधानमंत्री पद की गरिमा में तेज गिरावट और गठजोड़ की राजनीति के युग के पदार्पण का ही नतीजा है ।
राष्ट्रपति तथा उनका कार्यकाल (President and His Tenure):
नाम:
1. डा॰ राजेन्द्र प्रसाद
2. डा॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
3. डा॰ जाकिर हुसैन
4. वी॰वी॰ गिरि
5. न्यायमूर्ति एम॰ हिदायतुल्ला
6. वी॰वी॰ गिरि
7. फखरूद्दीन अली अहमद
8. बी॰डी॰ जत्ती
9. नीलम संजीव रेहड़ी
10. ज्ञानी जैल सिंह
11. आर॰ वेंकटरमण
12. डा॰ शंकर दयाल शर्मा
13. डा॰ के॰ आर॰ नारायणन
14. डा॰ अब्दुल कलाम
15. श्रीमती प्रतिभा पाटिल
16. श्री प्रणब मुखर्जी
कार्यकाल:
1. 26 जनवरी 1950 से 13 मई 1962
2. 13 मई 1962 से 13 मई 1967
3. 13 मई 1967 से 3 मई 1969
4. 3 मई, 1969 से 20 जुलाई 1969 (कार्यवाहक)
5. 20 जुलाई, 1969 से 24 अगस्त 1969 (कार्यवाहक)
6. 24 अगस्त 1969 से 24 अगस्त 1974
7. 24 अगस्त 1974 से 11 फरवरी 1977
8. 11 फरवरी 1977 से 25 जुलाई 1977 (कार्यवाहक)
9. 25 जुलाई 1977 से 25 जुलाई 1982
10. 25 जुलाई 1982 से 25 जुलाई 1987
11. 25 जुलाई 1987 से 25 जुलाई 1992
12. 25 जुलाई 1992 से 25 जुलाई 1997
13. 25 जुलाई 1997 से 3 मई 2002
14. 2002-2007
15. 2007-2012
16. 2012 से अब तक
विशेषाधिकार (SPECIAL POWERS)
संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति को सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों और मंत्रिपरिषद् की कार्यवाही के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है. प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति द्वारा मांगी गई सभी सूचनाएँ उसे दे. राष्ट्रपति प्रायः प्रधानमंत्री को पत्र लिखता है और देश की समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त करता है. इसके अतिरिक्त, कम से कम तीन अन्य अवसरों पर वह अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करता है – –
i) राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सलाह को लौटा सकता है और उसे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है. ऐसा करने में वह अपने विवेक का प्रयोग करता है. जब राष्ट्रपति को ऐसा लगता है कि सलाह में कुछ गलती है या कानूनी रूप से कुछ कमियाँ हैं या फैसला देश के हित में नहीं है, तो वह मंत्रिपरिषद् से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है. यद्यपि मंत्रिपरिषद् पुनर्विचार के बाद भी उसे वही सलाह दुबारा दे सकती है और तब राष्ट्रपति उसे मानने के लिए बाध्य भी होगा, तथापि राष्ट्रपति के द्वारा पुनर्विचार का आग्रह अपने आप में काफी मायने रखा है. अतः यह एक तरीका है जिसमें राष्ट्रपति अपने विवेक के आधार पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता है.
ii) राष्ट्रपति के पास वीटो की शक्ति (Veto Power/निषेधाधिकार) होती हैं जिससे वह संसद द्वारा पारित विधेयक (धन विधेयकों को छोड़कर) पर स्वीकृति देने में विलम्ब कर सकता है. स्वीकृति देने से मन कर सकता है. संसद द्वारा पारित प्रत्येक विधेयक को कानून बनने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है. राष्ट्रपति उसे संसद को लौटा सकता है और उसे उस पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है. वीटो की यह शक्ति (Veto Power) सीमित है क्योंकि संसद उसी विधेयक को दुबारा पारित कर दे और राष्ट्रपति के पास भेजे, तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ेगी. लेकिन संविधान में राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ेगी. लेकिन संविधान में राष्ट्रपति के लिए ऐसी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है जिससे अन्दर ही उस विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाना पड़े. इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को बिना किसी समय सीमा के अपने पास लंबित रख सकता है. इससे राष्ट्रपति को अनौपचारिक रूप से, अपने वीटो (Veto) को प्रभावी ढंग से प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है.
iii) तीसरे प्रकार का विशेषाधिकार राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पैदा होता है. औपचारिक रूप से राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है. सामान्यतः अपनी संसदीय व्यवस्था में लोकसभा के बहुमत दल के नेता को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाता है, इसलिए उसकी नियुक्ति में राष्ट्रपति के विशेषाधिकार का कोई प्रश्न ही नहीं. लेकिन उस परिस्थिति की परिकल्पना करें जिसमें चुनाव के बाद किसी भी नेता को लोकसभा में बहुमत प्राप्त न हो. इसके अतिरिक्त यह भी सोचा जा सकता है कि यदि गठबंधन बनाने के प्रयासों के बाद भी दो या तीन नेता यह दावा करें की उन्हें लोकसभा में बहुतमत प्राप्त है, तो क्या होगा? तब राष्ट्रपति को यह निर्णय करना है किसको प्रधानमंत्री नियुक्त करे. इस परिस्थिति में राष्ट्रपति को अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर यह निर्णय लेना होता है की किसे बहुमत का समर्थन प्राप्त है या कौन सरकार बना सकता है और सरकार चला सकता है.
वर्ष 1989 के बाद से प्रमुख राजनितिक परिवर्तनों के कारण राष्ट्रपति के पद का महत्त्व बहुत बढ़ गया है. वर्ष 1989 से वर्ष 1998 तक हुए चार संसदीय चुनावों में से किसी भी एक दल या दलीय गठबंधन को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सका. इन परिस्थतियों की माँग थी कि राष्ट्रपति हस्तक्षेप करके या तो सरकार का गठन कराये या फिर प्रधानमंत्री द्वारा लोकसभा में बहुमत सिद्ध कर पाने के बाद उसकी सलाह पर लोकसभा भंग कर दे.
अतः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति का विशेषाधिकार राजनीतिक परिस्थितियों पर आधारित होता है. जब सरकार स्थाई न हो और गठबंधन सरकार सत्ता में हो तब राष्ट्रपति के हस्तक्षेप की संभावनाएँ बढ़ जाती है. राष्ट्रपति का पद मुख्यतः एक औपचारिक शक्तिवाला पद है. ऐसे में यह पूछा जा सकता है कि तब हमें राष्ट्रपति की क्या आवश्यकता है? संसदीय व्यवस्था में मंत्रिपरिषद् विधायिका में बहुमत के समर्थन पर निर्भर होती है. इसका अर्थ यह है कि मंत्रिपरिषद् को कभी भी हटाया जा सकता है और तब उसकी जगह एक नई मंत्रिपरिषद् की नियुक्ति करनी पड़ेगी. ऐसी स्थिति में एक ऐसे राष्ट्र प्रमुख की जरुरत पड़ती है जिसका कार्यकाल स्थायी हो, जिसके पास प्रधानमंत्री को नियुक्त करने की शक्ति हो और जो सांकेतिक रूप से पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर सके. सामान्य परिस्थतियों में राष्ट्रपति की यही भूमिका है लेकिन जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तब राष्ट्रपति पर निर्णय लेने और देश की सरकार को चलाने के लिए प्रधानमंत्री को नियुक्त करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है.
पॉकेट वीटो का उदाहरण (EXAMPLE OF POCKET VETO)
हम जानते हैं की विधेयकों को स्वीकृति देने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति पर कोई समय सीमा नहीं है. वर्ष 1986 में संसद ने “भारतीय पोस्ट ऑफिस (संशोधन) विधेयक/The Indian Post Office (Amentment) Bill, 1986” पारित किया. अनेक लोगों ने इसकी आलोचना की क्योंकि विधेयक प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित कर रहा था. तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (President Zail Singh) ने उस पर कोई निर्णय नहीं लिया. उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद अगले राष्ट्रपति वेंकटरमण ने उसे पुनर्विचार के लिए संसद को लौटा दिया. तब तक, वह सरकार चली गई जिसने विधेयक पेश किया था और वर्ष 1989 में एक नई सरकार चुनकर आ गयी थी. यह दूसरे दलों की गठबंधन सरकार थी और उसने इस विधेयक को दुबारा संसद में पेश नहीं किया गया. इस प्रकार, जैल सिंह के द्वारा विधेयक को स्वीकृति देने के निर्णय में विलम्ब करने का वास्तविक परिणाम यह हुआ कि यह विधेयक कानून नहीं बन सका.
Essay # 5. राष्ट्रपति का वेतन एवं भत्ता आदि (President’s Salary and Allowance etc.):
राष्ट्रपति को अन्य भत्तों एवं सुविधाओं के अतिरिक्त Rs. 1,50,000 मासिक वेतन मिलता है । राष्ट्रपति को रहने के लिए बिना किराए का निवास-स्थान मिलता है । अवकाश ग्रहण के पश्चात पूर्व राष्ट्रपति को तीन लाख रूपये पेंशन दी जाती है तथा उन्हें निःशुल्क चिकित्सा उपलब्ध करायी जाती है ।
इसके साथ राष्ट्रपति को कुछ उन्मुक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं । राष्ट्रपति अपने पद के अधिकारों तथा शक्तियों का प्रयोग करते हुए जो कार्य करता है उसके संबंध में उसके विरूद्ध किसी भी न्यायालय में मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता और न ही उसकी गिरफ्तारी का वारंट जारी किया जा सकता है ।
Essay # 6. राष्ट्रपति पर महाभियोग (Impeachment on the President):
राष्ट्रपति की कार्यावधि पांच वर्ष निश्चित की गई है । लेकिन उसे संसद महाभियोग द्वारा अपदस्थ कर सकती है । संविधान के अनुच्छेद 61 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा संविधान का उल्लंघन किये जाने पर संविधान में दी गयी पद्धति के अनुसार उस पर महाभियोग लगाकर उसे अपदस्थ किया जा सकता है । उस पर अभियोग लगाने का अधिकार भारतीय संसद के प्रत्येक सदन को प्राप्त है ।
जिस सदन में महाभियोग का प्रस्ताव आना है, उस सदन में कम से कम एक चौथाई (1/4) सदस्यों के उस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर होने आवश्यक हैं तथा उस सदन में इस विषय में विचार होने के कम से कम 14 दिन पूर्व राष्ट्रपति को इसकी सूचना देनी होगी । राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह स्वयं या अपने प्रतिनिधि के रूप में किसी को सदन में भेजकर स्वयं को दोषहीन सिद्ध करने का प्रयत्न कर सकता है ।
यदि यह संकल्प उस सदन की कुल संख्या के कम से कम दो तिहाई (2/3) बहुमत से पारित हो जाता है तो वह प्रस्ताव संसद के दूसरे सदन में भेज दिया जाता है । यदि वहां भी वह प्रस्ताव कुल सदस्य संख्या के दो तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है तो महाभियोग का प्रस्ताव पारित समझा जाता है और राष्ट्रपति को उसी दिन त्याग पत्र देना पड़ता है ।
महाभियोग के विरूद्ध किसी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती । ऐसी स्थिति में जब राष्ट्रपति पद खाली हो तो उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति का कार्यभार देखता है लेकिन 6 माह के अंदर-अंदर नए राष्ट्रपति का चुनाव होना भी अनिवार्य है ।
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