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Indian Samvidhan ki prastavana|भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना

Indian Samvidhan ki prastavana|भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना
Indian Samvidhan ki prastavana|भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना

Indian Samvidhan ki prastavana|भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना

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प्रस्‍तावना या उद्देशिका किसी संविधान के दर्शन को सार रूप मे प्रस्‍तुत करने वाली संक्षिप्‍त अभिव्‍यक्ति होती है। सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान निर्माताओं ने अपने संविधान में प्रस्‍तावना को शामिल किया गया था। इसके बाद जैसे-जैसे विभिन्‍न देशों ने अपने संविधान का निर्माण किया, उनमें से कई देशों ने प्रस्‍तावना को महत्‍वपूर्ण समझकर अपने संविधान का हिस्‍सा बनाया। भारतीय संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को नेहरू के उद्देश्‍य प्रस्‍ताव को स्‍वीकार किया। इसी उद्देश्‍य प्रस्‍ताव का विकसित रूप हमारे संविधान की प्रस्‍तावना ( उद्देश्‍यका ) है। उद्देश्‍य प्रस्‍ताव और प्रस्‍तावना मिलकर संविधान के दर्शन को मूर्त रूप प्रदान करते हैं।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्‍य के मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय ने स्‍पष्‍ट किया है कि प्रस्‍तावना संविधान के अंग है क्‍योंकि जब अन्‍य सभी उपबन्‍ध अधिनियमित किये जा चुके थे , उसके पश्‍चात् प्रस्‍तावना को अलग से पारित किया गया। संविधान के अन्‍य भागों की तरह प्रस्‍तावना में भी संशोधन संभव है, बशर्ते वह आधारभूत ढॉचे को क्षति न पहॅूचाता हो।

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Samvidhan Ki Prastavana

प्रत्येक संविधान के प्रारंभ में सामान्य रूप से एक प्रस्तावना होती है जिसके द्वारा संविधान के प्रमुख उद्देश्यों को भली-भांति समझा जा सकता है। भारतीय संविधान की उद्देशिका (प्रस्तावना) अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उद्देशिका को संविधान का सार माना जाता है और इसे संविधान का आत्मा भी कहा जाता हैं।
नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य संकल्प में जो आदर्श प्रस्तुत किया गया उन्हें ही संविधान की उद्देशिका में शामिल कर लिया गया। संविधान के 42वें संशोधन (१९७६) द्वारा यथा संशोधित यह उद्देशिका निम्न प्रकार है।

“हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की
एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली बंधुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ईस्वी (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

प्रस्तावना में रखा अंकित शब्द (समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा अखंडता) मूल संविधान की प्रस्तावना में नहीं थे। इन्हें 42 वे. संवैधानिक संशोधन 1976 के आधार पर प्रस्तावना में जोड़ा गया है।
वास्तव में प्रस्तावना संविधान की कुंजी तथा संविधान का सबसे श्रेष्ठ अंग है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुब्बा राव ने कहा है “प्रस्तावना संविधान के आदर्शों आकांक्षाओं को बताती है।”

संविधान का स्‍त्रोत (Sources of constitution)

संविधान की प्रस्‍तावना में प्रयुक्‍त वाक्‍यंश ‘हम भारत के लोग’ प्रमाणित करता है कि भारतीय संविधान का स्‍त्रोत भारतीय जनता है। यह भारतीय राज्‍यव्‍यवस्‍था के लो‍कतांत्रिक पक्ष को भी प्रस्‍तुत करता हैं।

राजव्‍यवस्‍था की प्रकृति का परिचय (Introduction of the nature of polity)

भारतीय राजव्यवस्था की प्रक्रति को स्पष्ट करने के लिये प्रस्ताबना में पांच शब्द बिशेष महत्व के हैं –

1.संपूर्ण प्रभुत्‍व संपन्‍न – इसका अर्थ है कि आंतरिक और वाह्म मामलों में निर्णय लेने लेने के लिए भारत संपूर्ण शक्ति रखता है और किसी भी विदेशी शक्ति को इसमें हस्‍तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है , जहॉं तक राष्‍ट्रकुल का प्रश्‍न है तो भारत उसे ‘स्‍वाधीन राष्‍ट्रों एक संगठन’ के रूप देखता है, न कि ब्रिटिश साम्राज्‍य के विस्‍तार के रूप में। भारत, व्रिटिश सम्राज को राष्‍ट्रकुल के अध्‍यक्ष के रूप में सिर्फ प्रतीकात्‍मक तौर पर स्‍वीकार करता है।

2.समाजवादी- यह शब्‍द प्रस्‍तावना में 42 वें संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। भारत आर्थिक न्‍याय की धारणा को लोकतंत्र के साथ मिलाकर चलता है, इस दृष्टि से इसे लोकतांत्रिक समाजवाद कहा जा सकता है। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने ‘’डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ (1982) मामले’’ में स्‍पष्‍ट किया कि भारतीय समाजवाद, गांधीवाद और मार्क्‍सवाद का अनोखा मिश्रण है जो निश्चित रूप से गांधीवाद की ओर झुका हुआ है। भारतीय समाजवाद अर्थव्‍यवस्‍था के स्‍तर पर निजी उद्यमशीलता और सरकारी नियंत्रण दोनों के साथ-साथ रखा है।

1991 में लागू हुई उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण की नीति के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व-अर्थव्‍यवस्‍था के साथ काफी हद तक जुड़ चुकी है। अत: समाजवादी दलों और चिंतको का आरोप है कि भारत समाजवादी नहीं रहा है और नव-उदारवादी हो गया है।

3.पंथनिरपेक्ष- पंथनिरपेक्ष राज्‍य की सबसे प्रमुख पहचान यह है कि यह न तो किसी धर्म विशेष को राजकीय धर्म का दर्जा देता है और न ही अपने नागरिकों को धार्मिक स्‍वतंत्रता से वंचित करता है। भारत के संविधान में यह शब्‍द 42वें संशोधन, 1976 द्वारा जोड़ा गया परन्‍तु वास्‍तव में भारत आजादी के समय से ही पंथनिरपेक्ष राज्‍य रहा है। अनु. (25से 28) में धार्मिक स्‍वतंत्रता के अधिकार का अत्‍यंत व्‍यापक रूप से उल्‍लेख किया है। माननीय उच्‍चतम न्‍यायालय ने पंथनिरपेक्षता को संविधान का आधारभूत लक्षण माना है। संविधान में धर्मं के आधार पर विभेद का प्रति‍षेध किया गया है !

4.लोकतांत्रिक- इसका अर्थ है कि भारतीय राजव्‍यवस्‍था शासन के जिस रूप को स्‍वीकार करती है वह लोकतंत्र है, न कि राज्‍यतंत्र, अधिनायकतंत्र या कुछ और। स्‍पष्‍टत: भारत का शासन यहॉं के नागरिकों द्वारा चलाया जाता है। जनसंख्‍या अधिक होने के कारण भारत में अप्रत्‍यक्ष लोकतंत्र को अपनाया गया तथा इसके क्षेत्रीय, भाषायी, धार्मिक, सांस्‍कृतिक, नस्‍लीय विविधता को देखते हुए बहुदलीय लोकतंत्र को स्‍वीकार किया गया है। विचारधारा की दृष्टि से भारतीय लोकतंत्र उदारवादी है और आर्थिक न्‍याय के कारण समाजवादी लोकतंत्र के काफी नजदीक पहॅूच जाता है।

5.गणराज्‍य- इसका अर्थ है कि राज्‍यध्‍यक्ष निर्वाचित होगा न कि वह ब्रिटेन के सम्राट की तरह आनुवंशिक शासन होगा। भारत का राज्‍याध्‍यक्ष ‘राष्‍टपति’ होता है और उसके अप्रत्‍यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित किया जाता है। इस प्रकार भारत का कोई भी नागरिक यदि अर्हत है तो किसी भी पद पर नियुक्‍त हो सकता है यहॉ तक कि वह ‘राज्‍यध्‍यक्ष’ पद पर भी आसीन हो सकता है।

संविधान के उद्देश्‍यों का परिचय (Introduction of Constitution)

1.प्रथम उद्देश्‍य है- नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्‍याय उपलब्‍ध कराना – यहॉं न्‍याय कानूनी न्‍याय न होकर वितरणमूलक न्‍याय है जो न्‍याय का व्‍यापक रूप होता है। सामाजिक न्‍याय  के अन्‍तर्गत समाज के मुख्‍य धारा से वंचित लोगो को आरक्षण व अन्‍य प्रकार की सुविधाऍ दी गई हैं। राजनीतिक न्‍याय के अन्‍तर्गत राजनीतिक प्रक्रिया मे सभी नागरिक भाग ले सकते हैं। सार्वभौमिक वयस्‍क मताधिकार के साथ-साथ वंचित वर्गों के लिये राजनीतिक आरक्षण का आधार यही है। आर्थिक न्‍याय का अर्थ है कि समाज की कुल संपदा किसी छोटे से वर्ग तक सीमित न रह जाए अपितु विभिन्‍न वर्गों में आय और जीवन के स्‍तर में अंतराल कम से कम हो। ‘मनरेगा’ जैसे कार्यक्रम आर्थिक न्‍याय के आदर्श को ही साधने का प्रयत्‍न है।

2.दूसरा उद्देश्‍य है- विचार, अभिव्‍यक्ति, विश्‍वास, धर्म और उपासना की स्‍वतंत्रता प्रदान करना- अन्‍य व्‍यक्तित्‍व की स्वतंत्रता को देखते हुए असीमित स्‍वतंत्रता प्रदान नहीं की जा सकती। स्‍वतंत्रता का यह आदर्श मूलत: फ़्रास की क्रान्ति से लिया गया है और इस पर कुछ वेचारिक प्रभाव अमेरिकी संविधान का भी है। इसके अंतर्गत प्रत्‍येक व्‍यक्ति को उतना अधिकतम स्‍वतंत्रता दी जाती है, जितनी स्‍वतंत्रता बाकी व्यक्तियों को भी दी जा सके। स्‍पष्‍ट है कि स्‍वतंत्रता असीमित नहीं हैं। अनुच्‍छेद 19 में दी गई स्‍वतंत्रताओं पर युक्तियुक्‍त निर्बंधन लगाए गए हैं। साथ ही अनु. 25 से 28 तक धर्म और अंत:करण की व्‍यापक स्‍वतंत्रता प्रदान की गई है।

3.तीसरा उद्देश्‍य है- प्रत्‍यके व्‍यक्ति को प्रतिष्‍ठा एवं अवसर की समानता उपलब्‍ध कराना- भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 14 से 18 तक विभिन्‍न प्रकार की समानताऍ उपलब्‍ध कराई गई हैं और असमानताओं का निषेध किया गया है जैसे-अस्‍पृश्‍यता का अंत। साथ ही साथ राज्‍य के नीति-निदेशक तत्‍वों के अन्‍तर्गत महिला और पुरूष के लिये समान अधिकार आदि प्रावधान समानता के आदर्श को उपलब्‍ध कराने में महत्‍वपूर्ण हैं।

4.चौथा उद्देश्‍य है- बंधुत्‍व की भावना का विकास करना-बंधुता का आदर्श फ्रॉस की क्रातिं का मुख्‍य आधार था और वहीं से यह सम्‍पूर्ण विश्‍व में फैला। प्रस्‍तावना में ‘व्‍यक्ति की गरिमा और राष्‍ट्र की एकता और अखण्‍डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता’ को बढ़ाने पर बल दिया गया है। बंधुता का दूसरा अर्थ जो एकता या बंधुता राष्‍ट्र विरोधी भावनाओं पर आधारित हो, भारत के नागरिकों को उससे बचना चाहिये। बंधुता वास्‍तव में वही है जो राष्‍ट्र की एकता को अक्षुण्‍ण बनाए रखे। अनुच्‍छेद 51क. में नागरिकों का यह मूल कर्तव्‍य बताया गया है कि वे ‘भारत के लोगों में समरसता और समान भातृत्‍व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदों से परे हो’।

संविधान के अर्थ निर्धारण के लिये उपयोगी (Useful for the interpretation of the Constitution)

प्रस्ताबना संविधान के विधिक निर्वचन में सहायक है। किसी भी अधिनियम का अर्थ स्‍पष्‍ट करने के लिए यह संविधान की कुंजी के रूप में कार्य करती है। उच्‍चतम न्‍यायालय ने इस संबंध में निम्‍न निर्णय दिये हैं-

  1. प्रस्‍तावना किसी विनिर्दिष्‍ट उपबंध की शक्ति का स्‍त्रोत हो सकता है।
  2. विधायिका की शक्तियों पर सीमा अधिरोपित करने के लिये प्रस्‍तावना को स्‍त्रोत नहीं बनाया जा सकता।
  3. यदि किसी अनुच्छेद या प्रावधान के शब्‍दों के दो अर्थ हों या अर्थ संदिग्‍ध या अस्‍पष्‍ट हो तो उस दशा में सही अर्थ तक पहॅूचने के लिये प्रस्ताबना की सहायता ली जा सकती है।

ऐतिहासिक स्‍त्रोत के रूप में (As a historical Source)

उद्देशिका बताती है कि भारत का संविधान 26 नबंबर, 1949 को अधिनियमित और अंगीकृत हुआ !( ध्‍यातव्‍य है कि संपूर्ण भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ)।

परीक्षोपयोगी अन्य महत्‍वपूर्ण तथ्‍य

  • प्रस्‍तावना भारतीय संविधान के दर्शन को मूर्त रूप प्रदान करती है।
  • ‘केशवानन्‍द भारतीय बनाम केरल राज्‍य’ मामले में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने प्रस्‍तावना को संवधान का अंग और संशोधनीय माना।
  • प्रस्‍तावना संविधान निर्माताओं के विचारों को जानने की कुंजी है।
  • प्रस्‍तावना में उन उद्देश्‍यों का कथन है जिन्‍हें हमारा संविधान स्‍थापित करना चाहता है और आगे बढ़ाना चाहता है।
  • 42वें संशोधन 1976 द्वारा प्रस्‍तावना में तीन शब्‍द ‘समाजवादी’, ’पथ निरपेक्ष’, और ‘अखण्‍डता’ जोड़े गए।
  • भारतीय संविधान को 26 नवंबर, 1949 में अंगीकृत, अधिनियमित और सात्‍मार्पित किया गया।
  • प्रस्‍तावना के निम्‍नलिखित शब्‍द संविधान के आधारभूत ढॉचे का हिस्‍सा हैं- सम्‍पूर्ण प्रभुतवसम्‍पन्‍न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्‍य, राष्‍ट्र की एकता ओर अखण्‍डता।
  • प्रस्‍तावना स्‍पष्‍ट करती है कि भारत के शासन की सर्वोच्‍च सत्‍ता भारत की जनता में निहित है।

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