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Regulating Act 1773 History in Hindi
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Regulating Act 1773 History in Hindi-
जैसा कि हम जानते हैं कि क्लाइव के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की दशा निरंतर खराब होती गई और ब्रिटेन में लोग बंगाल के कुशासन एवं अव्यवस्था के कारण चिंतित हो गए तथा सन् 1773 ईस्वी के आते-आते कंपनी के दिवालिया हो जाने की स्थिति भी आ गई|
ब्रिटेन में लोगों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों की जांच के लिए ब्रिटिश संसद को विवश किया और जांच से पता चला कि कंपनी के बड़े अधिकारियों ने भारतीय जनता के हितों का ध्यान नहीं रखा एवं उनके साथ कई तरह के भेदभाव भी किए गए| उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी आर्थिक संकट में थी, अंततः विवश होकर कंपनी ने इंग्लैंड की सरकार से 9000000 पौंड के ऋण की याचना की| यद्यपि गृह सरकार कंपनी का सूत्र संचालन अपने हाथ में नहीं लेना चाहती थी परंतु वह कंपनी का पतन भी नहीं देख सकती थी| इंग्लैंड में बहुत पहले से ही कंपनी के हिसाब की जांच करने एवं कंपनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मांग की जा रही थी, और इस संबंध में इंग्लैंड की पार्लियामेंट में सन 1773 ईस्वी में दो कानून (एक्ट) पारित किए-
(1) प्रथम कानून के अनुसार कंपनी को 14 लाख पाउंड की धनराशि 4% ब्याज की दर से प्राप्त हुई
(2) दूसरा कानून रेग्युलेटिंग एक्ट था|
ब्रिटिश सरकार ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों पर नजर रखने के लिए 1773 ईसवी में एक एक्ट बनाया जिसे हम “रेगुलेटिंग एक्ट (Regulating Act ) 1773” के नाम से जानते हैं| ब्रिटिश सरकार ने एक्ट के द्वारा कंपनी के हाथों से उसकी राजनीतिक सत्ता लेने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया था और यह भारत के मामलों में ब्रिटिश सरकार का सीधा हस्तक्षेप था| कंपनी के निदेशकों से कहा गया था कि वे कंपनी के सैनिक, असैनिक एवं राजस्व संबंधी सभी कार्य एवं कागज-पत्र ब्रिटिश सरकार के सामने रखा करेंगे|
इस एक्ट के अंतर्गत बंगाल के गवर्नर को कंपनी के संपूर्ण भारतीय क्षेत्र का गवर्नर जनरल बनाया गया था उसकी एक कॉउंसिल (जिसे हम परिषद के नाम से जानते हैं) भी बनाई गई थी, इस परिषद में 4 सदस्य थे जिनमें से 3 सदस्यों का कंपनी से किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं होता था, अर्थात वह कंपनी से स्वतंत्र थे| कंपनी के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए भी न्याय की व्यवस्था की गई थी और 1774 इसी में कोलकाता में सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) की स्थापना की गई|
एक्ट ने कंपनी के अतिरिक्त संगठन में ही परिवर्तन नहीं किए अपितु उसने कंपनी एवं ब्रिटिश क्राउन के पारस्परिक संबंध की भी स्पष्ट व्याख्या की| कंपनी के इतिहास में सर्वप्रथम अंग्रेजी पार्लियामेंट ने उसके भारतीय शासन की स्पष्ट रूपरेखा निश्चित की| इसी एक्ट से भारत में ब्रिटिश प्रशासन का इतिहास भी प्रारंभ होता है| इस एक्ट में कार्यकारिणी, न्यायकारिणी आदि प्रशासन के विभिन्न अंगों में परिवर्तन किए|
रेग्यूलेटिंग एक्ट की प्रमुख धाराएं-
इस एक्ट के अनुसार कोलकाता का गवर्नर ब्रिटिश भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया| मुंबई एवं मद्रास के गवर्नर बाहरी नीति एवं देसी राज्यों से संधि विग्रह आदि विषयों में उसके अधीन कर दिए गए बिना उसकी स्वीकृति के अब विदेशी राज्यों से संधि विग्रह नहीं कर सकते थे परंतु आपत्ति काल में गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति के बिना भी संधि विग्रह आदि करने का उनको अधिकार दिया गया था|
गवर्नर जनरल का कार्यकाल 5 वर्ष का रखा गया|
गवर्नर जनरल की सहायता के लिए एक काउंसिल का गठन भी एक्ट के अनुसार कर दिया गया| इस काउंसिल में गवर्नर जनरल के अतिरिक्त चार सदस्य थे, इन सदस्यों का कार्यकाल 4 वर्ष का रखा गया|
गवर्नर जनरल का वेतन 25000 पाउंड प्रति वर्ष तथा सदस्यों का वेतन 1000 पाउंड प्रतिवर्ष रखा गया|
इस एक्ट के अनुसार वारेन हेस्टिंग्स प्रथम गवर्नर जनरल तथा फ्रांसिस, क्लेवरिंग, मानसन और बारवैल काउंसिल के सदस्य नियुक्त हुए, इन सब की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार ने स्वयं कर दी थी लेकिन भविष्य में रिक्त स्थानों की पूर्ति कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के द्वारा होने का नियम रेग्यूलेटिंग एक्ट में रखा गया था|
इसके अतिरिक्त एक्ट के अनुसार अब कंपनी के सैनिक एवं राजनीति शासन की सविस्तार सूचना भी संचालकों (बोर्ड ऑफ डायरेक्टर) को सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के पास भेजनी होती थी|
रेगुलेटिंग एक्ट के अनुसार एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना भी कलकत्ता में की गई, मुख्य न्यायाधीश का वेतन 8000 पाउंड एवं अन्य न्यायाधीशों का वेतन 6000 पाउंड वार्षिक निश्चित किया गया|
कंपनी का कोई भी कर्मचारी बिना लाइसेंस प्राप्त किए हुए निजी व्यापार नहीं कर सकता था, एवं ना तो किसी से भेंट या उपहार ही ग्रहण कर सकता था|
गवर्नर-जनरल की काउंसिल में समस्त निर्णय बहुमत के आधार पर किए जाते थे, गवर्नर जनरल को निर्णायक मत देने का अधिकार था|
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