
शीत युद्ध(COLD WAR) सम्पूर्ण जानकारी हिंदी में
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शीत युद्ध(COLD WAR)
सर्वप्रथम “बर्नार्ड ब्रुच” ने शीत युद्ध का नाम दिया और “प्रो.लीपमैन” ने “cold war” नमक पुस्तक लिखकर इसे लोकप्रिय बना दिया |द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के काल में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच उत्पन्न तनाव की स्थिति को शीतयुद्ध के नाम से जाना जाता है | कुछ इतिहासकारों द्वारा इसे “शस्त्र सज्जित शांति” का नाम भी दिया गया है | द्वितीय विश्व के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका ,ब्रिटेन और रूस ने कंधे से कन्धा मिलाकर धुरी राष्ट्रों -जर्मनी इटली और जापान के विरुध संघर्ष किया था किन्तु युद्ध की समाप्ति के होते ही ,एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा | बहुत जल्द ही इन मतभेदों ने तनाव की भयंकर स्थिति उत्पन्न कर दी |
*के.पी.एस.मेनन के अनुसार –
“शीतयुद्ध दो विरोधी विचारधाराओ- पूंजीवाद और साम्राज्यवाद,दो व्यवस्थाओं -बुर्जुआ लोकतंत्र तथा सर्वहारा तानाशाही ,दो गुटों -नाटो और वार्सा समझौता , दो राज्यों -अमेरिका और सोवियत संघ तथा दो नेताओ -जांन फास्टर इल्लास तथा स्टालिन के बीच युद्ध था, जिसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा’ |”
*पण्डित जवाहर लाल नेहरु ने शीत युद्ध की स्थिति को “निलंबित मृत्यु का वातावरण” कहकर संबोधित किया
*जोसेफ फ्रेंकेल के शब्दों में
“शीतयुद्ध को दो बड़े राज्यों के बीच विद्धमान गहरी प्रतियोगिता अर्थात चालों तथा प्रतिचालों का सिलसिला माना जा सकता है”
*डी.एफ.फ्लेमिंग ने अपने कृति “THE COLD WAR AND ITS ORIGINS,1917-59” लिखा है की “शीतयुद्ध एक ऐसा युद्ध है , जो युद्ध क्षेत्र में नही, बल्कि मनुष्य के मस्तिष्क में लड़ा जाता है तथा इसके द्वारा उनके विचारो पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है “
* जांन फास्टर डलेस के शब्दों में
“शीत युद्ध नैतिक द्रष्टि से धर्म युद्ध था , अच्छाइयो के लिए बुराइयों के विरुद्ध , सत्य के लिए गलतियों के विरुद्ध और धर्म प्राण लोगो के लिए नास्तिको के विरुद्ध संघर्ष था |”
शीत का अर्थ
जैसा की इसके नाम से ही स्पष्ट है की यह अस्त्र-शस्त्रों का युद्ध न होकर धमकियों तक ही सीमित युद्ध है | इस युद्ध में कोई वास्तविक युद्ध नही लड़ा गया | यह केवल परोक्ष युद्ध तक ही सीमित रहा | इस युद्ध में दोनों महाशक्तिया अपने के अपने वैचारिक मतभेद ही मौजूद रहे | यह एक प्रकार का कूटनीतिज्ञ युद्ध था जो महाशक्तियों के संकीर्ण स्वार्थ सिद्धियों के प्रयासों पर ही आधारित रहा |
शीतयुद्ध एक प्रकार का वाकयुद्ध था
शीतयुद्ध एक प्रकार का वाकयुद्ध था जो कागज के गोलों, पत्र, पत्रिकाओ, रेडियो तथा प्रचार साधनों तक ही लड़ा गया | इस युद्ध में न तो कोई गोली चली और न ही कोई घायल हुआ | इसमें दोनों महाशक्तियो ने अपना सर्वस्व कायम रखने के लिए विश्व के अधिकांश हिस्सों में परोक्ष युद्ध लडे | युद्ध को सस्त्रयुद्ध में रोकने के लिए सभी उपायों का भी प्रयोग किया गया ,यह केवल कूटनीतिज्ञ उपायों द्वारा लड़ा जाने वाला युद्ध था जिसमे दोनों महाशक्तियां एक -दुसरे को नीचा दिखाने के सभी उपायों का सहारा लेती रही | इस युद्ध का उद्देश्य अपने-अपने गुटों में मित्रराष्ट्रों को शामिल करके अपनी स्थिति को बनाना था, ताकि भविष्य में प्रत्येक अपने-अपने गुट की चालों को आसानी से काट सके | यह युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य पैदा हुआ अविश्वास व शंका की अंतिम परिणति थी |
शीत युद्ध की प्रकृति
शीत युद्ध की प्रकृति कूटनीतिज्ञ युद्ध सी है जो अत्यंत उग्र होने पर सशस्त्र युद्ध को जन्म दे सकती है | इस शीत युद्ध में दोनों ही पक्ष आपस में शांतिकालीन कूटनीतिज्ञ सम्बन्ध बनाये रखते हुए भी शत्रु भाव रखते हैं | और सशस्त्र युद्ध के अलावा अन्य सभी उपायों में एक- दूसरे को कमजोर बनाने का प्रयास करते हैं| इस युद्ध में दोनों ही पक्ष अपने प्रभाव क्षेत्र के लिए अपनी सिद्धांतिक विचारधाराओं और मान्यताओं पर बल देते हैं| दूसरे देशों को प्रभाव क्षेत्र में लेने के लिए आर्थिक सहायता देना, प्रचार अस्त्र को काम में लेना, जासूसी, सैनिक हस्तक्षेप ,शस्त्र सप्लाई, शस्त्रीकरण ,सैनिक गुटबंदी और प्रादेशिक संगठनों का निर्माण आदि शीत युद्ध के अंग है |
शीत युद्ध के प्रमुख लक्षण
शीत युद्ध में दो सिद्धांतों का ही नहीं, अपितु भीमाकार शक्तियों रूस और अमेरिका का संघर्ष है|इसमें का महत्व है, यह एक वाकयुद्ध है| इस वातावरण में दोनों महाशक्तियां व्यापाक प्रचार, गुप्तचरी, सैनिक हस्तक्षेप, सैनिक संधियों तथा प्रादेशिक संगठनों की स्थापना करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने में लगी रहती हैं |*दोनों शिवरों के मध्य तनावपूर्ण संबंधों की स्थिति को शीत युद्ध कहा जाता है|
यह गरम युद्ध से भी अधिक भयानक है इसे “मस्तिष्क में युद्ध” के विचारों को प्रश्रय देने वाला युद्ध कहा गया है|विभिन्न विद्वान इस का उद्भव द्वितीय विश्व युद्ध के तत्काल बाद मानते हैं | कुछ अन्य विशेषज्ञ इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के 5 मार्च 1946 मार्च को दिए गए फुल्टन भाषण से , जिसमें उन्होंने कहा था कि हमें तानाशाही के एक स्वरूप के स्थान पर दूसरे स्वरूप की स्थापना रोकनी चाहिए| स्वतंत्रता की दीप शिखा प्रज्वलित रखने एवं इसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए हर संभव नैतिक-अनैतिक उपायों का अवलंबन किया जाना चाहिए| असल में शीतयुद्ध के बारे में किसी निश्चित दिन अथवा समय को बताना असंभव है, क्योंकि यह युद्ध एक लंबी प्रक्रिया थी जिसके अंतर्गत दो महाशक्तियों में आपसी हितों के टकराव से विभिन्न संकट भिन्न-भिन्न समय पर लगातार पैदा हुए अर्थात दोनों के बीच तनाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और इसे ही शीत युद्ध कहा गया |
शीतयुद्ध(COLD WAR) का विकास; प्रमुख घटनाएं: एक दृष्टी में
शीत युद्ध को सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित चार भागों में बांटा जा सकता है-
- पहला चरण(१९४६-१९५३)
१- चर्चिल का फुल्टन भाषण
अनेक विद्वान् शीतयुद्ध का उद्भव विंस्टन चर्चिल का फुल्टन भाषण से मानते हैं |इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के 5 मार्च 1946 को भाषण दिया ,जिसमें उन्होंने कहा था कि “हमें तानाशाही के एक स्वरुप के स्थान पर उसके दूसरे स्वरूप की स्थापना रोकनी चाहिए |स्वतंत्रता के दीपशिखा प्रज्वलित रखने एवं इसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए आंग्ल अमेरिकी गठबंधन स्थापित किया जाना चाहिए|साम्यवाद के प्रसार को सीमित रखने के लिए हरसंभव नैतिक-अनैतिक उपायों का अवलंबन किया जाना चाहिए”|और 19 फरवरी 1947 को अमेरिकी सीनेट के सम्मुख राज्य सचिव हीन एचिसन ने कहा कि ‘सोवियत संघ की विदेश नीति आक्रामक और विस्तार वादी है|’इस प्रकार पूर्व और पश्चिम में एक दूसरे के विरुद्ध शीत युद्ध का वातावरण उग्र होता गया|
२-ट्रूमैन सिद्धांत
साम्यवाद विरोध के नाम पर अमेरिका ने 12 मार्च 1947 को विश्व के अन्य देशों के लिए ट्रूमैन सिद्धांत का प्रतिपादन किया|कहा गया कि संसार में जहां कहीं भी शांति को भंग करने वाला परोक्ष या अपरोक्ष आक्रामक कार्य होगा तो अमेरिका सुरक्षा संकट समझेगा तथा उसे रोकने के लिए भरसक प्रयास करेगा |अमेरिका द्वारा ट्रूमैन सिद्धांत की घोषणा से स्पष्ट है कि यह उसने सोवियत संघ के प्रति अपने मन मुटाव ,घृणा ,वैमनस्य , और अविश्वास के कारण की|
३-मार्शल योजना
विश्व को साम्यवादी क्रांति के कथित खतरे से बचाने के लिए 8 जून 1947 को अमेरिका ने मार्शल योजना की घोषणा की|26 अप्रैल 1947 को इसकी जरूरत पर बल देते हुए अमेरिका के विदेश सचिव ने कहा था कि-यदि इस समय तत्काल यूरोप के आर्थिक पुनरुत्थान का प्रयत्न नहीं किया गया तो वह साम्यवाद हो जाएगा इससे अमेरिका और रूस के बीच विरोध पहले की अपेक्षा और बढ़ा |
४-कोमेकोन की स्थापना
सोवियत गुट के तो नौ यूरोपीय देशों ने तो मार्शल योजना का करारा जवाब देने के लिए 25 अक्टूबर 1947 को कोमेकोन का गठन किया कर दिया |इसका उद्देश्य फ्रांस इटली सहित यूरोप की साम्यवादी दलों को संगठित करना था |इससे अमेरिका तथा इसके पश्चिम यूरोप के मित्र देश सोवियत संघ के खिलाफ हो गए |
५-‘नाटो’ का गठन
उत्तर अटलांटिक संधि संगठन 1 अप्रैल 1949 को अमेरिका के नेतृत्व में कनाडा और पश्चिम की 10 देशों (बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, आयरलैंड, इटली, लक्जमबर्ग, हालैंड, पुर्तगाल, ब्रिटेन, और नार्वे ) ने नाटो नामक सैनिक समझौते पर हस्ताक्षर किए,इसमें कहा गया कि यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में किसी एक या अनेक देशों पर किया गया सशस्त्र आक्रमण समझौते के सभी सदस्यों के खिलाफ हमला समझा जाएगा| यह सोवियत संघ को खुली चेतावनी थी कि यदि उसने नाटो के किसी भी देश पर हमला किया तो अमेरिका उसका मुंह तोड़ जवाब देगा, अमेरिका द्वारा नाटो का निर्माण सोवियत संघ का सैनिक स्तर पर विरोध विरोध करना था |
६-कोरिया संकट
जून 1950 में कोरिया संकट ने भी अमेरिका और सोवियत संघ में शीत युद्ध में वृद्धि की |इस युद्ध में उत्तरी कोरिया को सोवियत संघ तथा दक्षिणी कोरिया को अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्रों का समर्थन व सहयोग प्राप्त था,दोनों महाशक्तियों ने परस्पर विरोधी व्यवहार का प्रदर्शन करके शीत युद्ध को वातावरण में और अधिक गर्मी पैदा कर दी |कोरिया युद्ध का तो हल हो गया लेकिन दोनों महाशक्तियों में आपसी टकराव की स्थिति कायम रही | 1951 में जब कोरिया युद्ध चल ही रहा था, उसी समय अमेरिका ने अपने मित्र राष्ट्रों के साथ मिलकर जापान से शांति संधि कर ली और संधि को कार्य रुप देने के लिए सान फ्रांसिस्को नगर में एक सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय किया सोवियत संघ ने इसका कड़ा विरोध किया| अमेरिका ने इसी वर्ष जापान के साथ एक प्रतिरक्षा संधि करके विरोध की खाई को और अधिक गहरा कर दिया | अमेरिका की इन कार्यवाहियों ने सोवियत संघ के मन में देश की भावना को बढ़ावा दिया, इन संधियों को सोवियत संघ ने साम्यवाद के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा माना और उस की निंदा की |
शीत युद्ध का दूसरा चरण (1953 से 1958)
शीत युद्ध के दूसरे चरण में महाशक्तियों की राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन हुआ |अमेरिका ट्रूमैन की जगह पर आइजनहावर राष्ट्रपति बने तो सोवियत संघ में स्टालिन की मृत्यु के बाद बुल्गानिन और उसके बाद ख्रूचेव ने शासन सत्ता की बागडोर संभाली |
शीत युद्ध के दूसरे चरण की प्रमुख घटनाएं निम्नलिखित है |
१-रूस द्वारा परमाणु परीक्षण
1953 में सोवियत संघ ने पहली बार परमाणु परीक्षण किया | जिससे उसका परमाणु क्षेत्र में अमेरिका के समकक्ष होने का मार्ग प्रशस्त हो गया | रूस ने सफल परमाणु परीक्षण संपन्न कर जहां परमाणु हथियारों का निर्माण आरंभ किया, वही उसके प्रतिद्वंदी अमेरिका तथा पश्चिम के राष्ट्रों को सुरक्षा का खतरा महसूस हुआ | परिणाम स्वरुप दोनों महाशक्तियों में नए घातक परमाणु शस्त्रों का आविष्कार कर उनका ढेर लगाने की होढ प्रारंभ हो गई | सोवियत संघ द्वारा स्पुतनिक नामक कृत्रिम उपग्रह का इसका सबसे अच्छा उदाहरण है |
२-हिन्द चीन की समस्या
हिंदचीन क्षेत्र (वियतनाम, काम्पुचिया और लाओस) में दोनों महाशक्तियां अपनी-अपनी समर्थक सरकारे स्थापित करने के प्रयास में लग गई | इस क्षेत्र में फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के विरोध चलने वाले संघर्ष में गृहयुद्ध, सैनिक टकराव या अव्यवस्था आम बात हो गई | फ्रांसीसी औपनिवेशिक शासको द्वारा हिन्द चीन छोड़ने के लिए, निर्णय के बाद अमेरिका का बड़े पैमाने पर इस क्षेत्र में प्रवेश शीत युद्ध के कारण ही प्रेरित था | अपने को मुकाबले की विश्व शक्ति प्रमाणित करने के लिए सोवियत संघ को भी रणभूमि में उतरना पड़ा | 1954 में दिएन-बीएन फू के सैनिक गढ़ के पतन के बाद जेनेवा बुलाया गया | जिससे हिंद चीन में कम्पूचिया और लाओस को स्वतंत्र राष्ट्रों के रुप में स्थापित किया | वियतनाम का विभाजन अंतर्राष्ट्रीय रूप से मान्यता प्राप्त हुआ| जेनेवा समझौतों में यह बात मानी गई कि 2 वर्ष बाद जनमत संग्रह होगा और वियतनाम के राजनीतिक भविष्य, एकीकरण आज का निर्माण लिया जाएगा| हिंद चीन में अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षण नियंत्रक आयोग में कनाडा, भारत, पोलैंड में शामिल किए गए | परंतु शीत युद्ध के इस चरण में इस समझौते को लागू किया जाना संभव नहीं हुआ | वह शीत युद्ध का ही प्रभाव था कि दोनों प्रतिस्पर्धी पक्षों को एक या दूसरी महाशक्ति का समर्थन मिल गया |
३-सीटो और सेंटो का गठन
अमेरिका में तीसरी दुनिया के देशों में साम्यवाद का प्रचार रोकने के लिए सीटो एवम् सैनिक समझौते को क्रमशः 1954 एवम् 1955 में परिवर्तित किया| इन समझौतों द्वारा सदस्य देशों को सैनिक एवं अन्य प्रकार के सुरक्षा गारंटी दी गई | निश्चित रूप से यह रूस विरोधी अमेरिका प्रयास था|
४-वारसा पैक्ट का गठन
अमेरिका द्वारा साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए प्रवर्तित सीटो ,सेंटो एवं नाटो के निर्माण के प्रत्युत्तर में सोवियत संघ भी कहां चूकने वाला था अतः उसने जवाबी कार्यवाही के लिए 14 मई 1955 को पूर्व -यूरोपीय देशों को वारसा पैक्ट में शामिल कर सैनिक तथा अंय प्रकार की सुरक्षा की गारंटी प्रदान की | निश्चित रूप से यह सोवियत प्रयास अमेरिका विरोधी था| वारसा पैक्ट मूलतः अमेरिकी नाटो का जवाब था इससे रूस और उसके आठ पूर्व यूरोपी साथी राष्ट्र सम्मिलित हुए 1991 में वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया|
५_आइजनहावर सिद्धांत की घोषणा
जून 1957 में अमेरिका द्वारा आइजनहावर सिद्धांत की घोषणा की गई | इस सिद्धांत के अनुसार अमेरिकी कांग्रेस ने राष्ट्रपति को पश्चिम एशिया के किसी भी देश में साम्यवादी आक्रमण को रोकने के लिए अपने विवेक के अनुसार सेना भेजने तथा सैनिक कार्यवाही करने का अधिकार दिया | दूसरी तरफ यह हुआ कि आज हावर सिद्धांत की घोषणा पर रूसी प्रतिक्रिया हुई कि उसने इसको पश्चिम एशिया के लिए घातक बताया | फलस्वरूप इस क्षेत्र में अमेरिका तथा रूस ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र जमाना आरंभ कर दिया | परिणामस्वरुप सामरिक महत्व के पश्चिम क्षेत्र और तेलकुओ पर प्रभुसत्ता जमाने के लिए अमेरिका और रूस दोनों एक दूसरे के विरुद्ध कूटनीतिक चालें चलते रहे |
६-स्वेज नहर का संकट
1956 में स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के जवाब में फ्रांस और ब्रिटेन ने मिस्र पर सैनिक हमला कर दिया| अमेरिका ने मिस्र पर हमले में फ्रांस और ब्रिटेन का साथ नहीं दिया फिर भी यह हमला उनके मित्र राष्ट्रों द्वारा किया गया था| सोवियत संघ ने इस हमले को की कड़ी आलोचना की | इसने एक बार फिर से युद्ध में गर्माहट उत्पन्न कर दी |
शीत युद्ध का तीसरा चरण( 1959-1962 )
तीसरे चरण में अंतरराष्ट्रीय राजनीति अमेरिका और रूस की अनबन, पिघलाव , और गर्माहट दोनों की ओर छलांगे लगाती रही | ख्रूचेव द्वारा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की वकालत से अनेक राजनीतिक टिप्पणीकारों ने सोचा कि अब महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध शिथिल हो जाएगा, किन्तु प्रारंभिक सफलताओं के बाद दोनों में कभी पिघलाव कभी गर्माहट रही|
- इस चरण की प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं-
१-1959 में ख्रूचेव की अमेरिका यात्रा
स्टर्लिंग की मृत्यु ( 1953 )के बाद बुल्गानिन और उसके हटने के पश्चात ख्रूचेव के सत्ता में आने (1956) के बाद 3 अगस्त 1959 को मास्को और वाशिंगटन की एक साथ घोषणा हुई कि कुछ ही दिनों में सोवियत प्रधानमंत्री ख्रूचेव अमेरिका की और अमेरिका राष्ट्रपति आइजनहावर सोवियत संघ की यात्रा पर जाएंगे |15 सितंबर 1959 को ख्रूचेव अमेरिका पहुंचे और वह एक महीने तक उस देश के स्थानों पर भ्रमण करते रहे उनका सर्वत्र भव्य स्वागत किया गया | कैंप डेविड नामक स्थान पर आइजनहावर विचार विमर्श किया | यह तय किया गया कि 16 मई 196० से पेरिस में निशात्रिकरण की समस्या सुलझाने के लिए शिखर सम्मेलन आयोजित किया जाए और वहीं से राष्ट्रपति यात्रा आइजनहावर यात्रा पर रवाना हो | इस प्रकार की ख्रूचेव अमेरिका यात्रा से दोनों देशों के बीच शीत युद्ध की शिथिलता के आसार दिखाई देने लगा | इसे “कैंप डेविड की भावना” के नाम से पुकारा गया |
२- यू-२ विमान कांड एवं पेरिस शिखर सम्मेलन की असफलता
पेरिस सम्मेलन के 2 सप्ताह पूर्व अर्थात 1 मई 1960 को यू -२ विमान कांड के होने से कैंप डेविड की भावना पर पानी फिर गया | अमेरिका का एक जासूसी विमान सोवियत सीमा का उल्लंघन करके 2000 किलोमीटर अंदर घुस गया| रूस को इसका पता चलने पर उसने विमान चालक को पहले नीचे उतारने को कहा | ऐसा ना होने पर उसने राकेटों की सहायता से उसे नीचे गिरा कर उसके चालक गैरी पावर को जिंदा गिरफ्तार कर लिया | अमेरिका ने इसके प्रति अपने अभिज्ञता प्रकट की| गैरी पावर द्वारा जासूसी के इरादों की स्वीकारोक्ति से अमेरिका ने यह माना | सोवियत संघ ने इसके लिए कड़ी शब्दों में आलोचना किया | इसका परिणाम पेरिस शिखर सम्मेलन की असफलता के रूप में सामने आया |
३-क्यूबा संकट
कोरियाई महाद्वीप में स्थित कि क्यूबा हर दृष्टि से दोनों महाशक्तियों के लिए महत्वपूर्ण है | एक ओर रूस लिए वह लकड़ घोड़ा(frogon-house) हो सकता है तो दूसरी ओर अमेरिका के लिए गठिया रोग जैसा हो सकता है| अप्रैल 1961 में सोवियत संघ के नेताओं को यह चिंता सता रही थी कि अमेरिका साम्यवादियों साम्यवादियों द्वारा साशित क्यूबा पर आक्रमण कर देगा और इस देश के राष्ट्रपति की दल कास्त्रो का तख्तापलट हो जाएगा | क्यूबा अमेरिका के तट से लगा हुआ एक छोटा सा द्वीपीय देश है | क्यूबा का जुड़ाव सोवियत संघ से था और सोवियत संघ उसे कूटनीतिक या कूटनयिक तथा वित्तीय सहायता देता था | सोवियत संघ के नेता निकिता ख्रूचेव ने क्यूबा को रूस के ‘सैनिक अड्डे’ के रूप में बदलने का फैसला किया | 1962 में ख्रूचेव ने क्यूबा में परमाणु मिसाइल तैनात कर दी | इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमेरिका नजदीकी निशाने की सीमा में आ गया| हथियारों की तैनाती के बाद सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमेरिका के मुख्य भूभाग के लगभग दोगुने ठिकानों यस शहरो पर हमला बोल सकता था |
मिसाइल संकट
क्यूबा में सोवियत संघ द्वारा परमाणु हथियार तैनात करने की भनक अमेरिकियों को 3 हफ्ते बाद लगी | अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी और उनके सलाहकार ऐसा कुछ भी करने से हिचकिचा रहे थे जिसमें दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध शुरू हो जाए| लेकिन इस बात को लेकर दृढ़ थे की ख्रूचेव क्यूबा से मिसाइलों और परमाणु हथियारों को हटा ले | केनेडी ने आदेश दिया कि अमेरिकी जंगी बेड़ो को आगे करके क्यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत जहाजों को रोका जाए | इस तरह अमेरिका सोवियत संघ के मामले के प्रति अपनी गंभीरता की चेतावनी देना चाहता था ऐसी स्थिति में यह लगा कि युद्ध होकर रहेगा इसी को क्यूबा मिसाइल संकट के रूप में जाना गया | इस संघर्ष की आशंका ने पूरी दुनिया को बेचैन कर दिया | यह टकराव कोई आम युद्ध नहीं होता | अंततः दोनों पक्षों ने युद्ध हटाने का फैसला किया और दुनिया ने चैन की सांस ली | सोवियत संघ के जहाज में या तो अपनी गति धीमी कर ली या वापसी का रूख कर लिया |
शीत युद्ध का चौथा चरण (1963 से 1979)
चौथे चरण में जहां दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव शैथिल्य आरंभ हुआ वहां छुटपुट प्रतिद्वंदिता चलती रही | इस चरण में शीत युद्ध की शिथिलता की प्रमुख घटनाएं निम्नांकित हैं-
१- परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि
क्यूबा संकट के बाद दोनों महाशक्तियों ने महसूस किया कि यदि उन्होंने आपसी टकराव को रोकने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया तो महायुद्ध कभी भी छिड़ सकता है| निशस्त्रीकरण के क्षेत्र में 23 जुलाई 1963 को मास्को में रूस ,अमेरिका और ब्रिटेन ने वायुमंडल ब्रह्म अंतरिक्ष और समुद्र में परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध पर हस्ताक्षर किए | इसके बाद चीन फ्रांस तथा कुछ अन्य राष्ट्रों को छोड़कर करीब 100 से अधिक देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए |
२- हॉटलाइन समझौता
1963 में क्रेमलिन (मास्को )तथा वाइट हाउस (वाशिंगटन) के बीच हॉटलाइन के जरिए सीधा संपर्क स्थापित करने का समझौता हुआ | इस सीधे संपर्क का उद्देश्य यह था कि किसी भी अंतर्राष्ट्रीय या द्विपद्नीय संकट के दौरान महाशक्तियों में भूल ,आकस्मिक दुर्घटना, या गलतफहमी के कारण उत्पन्न टकराव को टाला जाए | इसके द्वारा दोनों देशों के शासनाध्यक्ष सीधा संपर्क कर संकट का निवारण कर सकते हैं |
३ – परमाणु अस्त्र -प्रसार रोक संधि
1968 में सोवियत संघ अमेरिका और ब्रिटेन ने अन्य देशों के साथ ‘परमाणु अस्त्र अप्रसार रोक संधि’ पर हस्ताक्षर किए | सन्धि के अनुसार वे अन्य देशों द्वारा परमाणु अस्त्र अप्रसार करने में किसी भी प्रकार की सहायता नहीं करेंगे | इसका उद्देश्य परमाणु अस्त्रों की होड़ रोककर तनाव कम करना था |
४- मास्को बोन समझौता
1970 में सोवियत संघ और पश्चिमी जर्मनी के बीच यह समझौता हुआ | इस समझौते के द्वारा दोनों देशों ने यथास्थिति को स्वीकार कर एक दूसरे के खिलाफ शक्ति प्रयोग नहीं करने का निर्णय लिया | इसलिए दो महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध का तनाव काफी कम हुआ |
५- बर्लिन समझौता
3 सितंबर 1971 को अमेरिका, सोवियत संघ,ब्रिटेन तथा फ्रांस के बीच करीब 18 महीने की लंबी बातचीत के बाद बर्लिन समझौते पर हस्ताक्षर हुए | इसके अंतर्गत ‘पश्चिम बर्लिन के निवासियों को पूर्वी भरली तथा पूर्वी जर्मनी’ आने की अनुमति देने की व्यवस्था थी | इसके पहले इस पर रोक थी | बर्लिन समस्या का यह हल खोजकर तनाव कम किया गया |
६- दो जर्मन राज्यों का सिद्धांत
8 नवंबर 1972 को पश्चिम जर्मनी की राजधानी बॉन में दो जर्मन राज्यों का सिद्धांत स्वीकार कर लिया गया | इसमें हुए समझौते में पूर्वी तथा पश्चिमी जर्मनी के बीच संधि हुई | इन दोनों को 1973 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य सदस्यता प्रदान की गई | इस मसले पर सुरक्षा परिषद में दोनों महाशक्तियों ने न तो कोई आपत्ति प्रकट की और ना ही वीटो का प्रयोग किया | इसने महाशक्तियों के बीच तनाव को कम करने का मार्ग प्रशस्त किया |
७- यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन
3 जुलाई 1973 को फिनलैंड फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग सम्मेलन हुआ | जेनेवा में यह सम्मेलन 17 सितंबर 1973 से 27 जुलाई 1975 तक जारी रहा और 1 अगस्त 1975 को यह हेलसिंकी में समाप्त हुआ | इसमें 35 देशों ने भाग लिया | सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य यूरोपीय देशो में आपसी संबंध सुधारना तथा उसने सुदृढ़ करना एवं यूरोप में शांति ,न्याय और सहयोग बढ़ाना था| सम्मेलन में निम्नांकित सिद्धांतों की घोषणा की गई-
१- संयुक्त राष्ट्र संघ में आस्था तथा अंतर्राष्ट्रीय शांति सुरक्षा और न्याय की स्थापना में उसकी भूमिका तथा प्रभावकारिता को बढ़ावा देना |
२- राज्यों में मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास करना |
३-समस्त राज्यों में सार्वभौमिक समानता का आदर करना |
४ -शक्ति का प्रयोग व उसके प्रयोग की धमकी ना देना |
५- सीमाओं का उल्लंघन ना करना |
६ – राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता में विश्वास |
७- राज्यों के आंतरिक मामलों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अकेले या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप ना करना |
८- विचार अंतरात्मा धर्म या विश्वास सहित मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के प्रति आदर करना |
९- लोगों के समान अधिकारों और आदमी के अधिकार को स्वीकार करना स्वीकार करना |
१०- राज्यों में आपसी सहयोग को बढ़ावा देना |
११- अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत उत्तरदायित्व का शिक्षा से पालन करना इत्यादि |
शीत युद्ध की समाप्ति
रूस के नेतृत्व में साम्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी देश दो खेमो में बट गये | इन दोनों पक्षों में आपसी टकराहट आमने-सामने कभी नही हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे की युद्ध का खतरा सदा सामने दिखाई पड़ता रहता था | बर्लिन संकट ,कोरिया युद्ध ,सोवियत रूस द्वारा आणविक परीक्षण सैनिक संगठन , हिन्द की समस्या ,यू-२ विमान कांड ,क्यूबा मिशाइल संकट कुछ ऐसी परिस्थियाँ थी जिन्होंने शीत युद्ध की अग्नि को प्रज्ज्वलित किया |
सन् १९९१ में सोवियत रूस के विघटन से उसकी सकती कम हो गयी और शीत युद्ध की समाप्ति हो गयी |
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